मनुष्यका अनादी कालसे जो स्वभाव बना है, उसके वशीभूत होकर
कर्म करता है, परन्तु वह मान लेता है कि वह जो कुछ करता है, प्रभु-प्रेरणासे करता
है । वास्तविकता यह है कि जबतक मनुष्यमें
कर्तृत्व-अभिमान है; फलेच्छा है, आसक्ति है, कामना है तबतक वह प्रभु-प्रेरणासे
कार्य नहीं करता । वह कामनाकी प्रेरणासे कार्य करता है और उसका फल बन्धन होता है ।
परन्तु जब स्वार्थ, कामना, राग, विषमता आदि नहीं रहते और अन्तःकरण निर्मल होता है;
तो उसकी क्रिया फलजनक नहीं होती, बन्धनकारक नहीं होती । कर्मण्यकर्म यः पश्येत् । (गीता ४/१८) अर्थात् वह मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है । और‒ यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ (गीता ४/१९) ‘समारम्भाः’ अर्थात् सम्यक आरम्भ, आरम्भमें कम नहीं अर्थात् क्रियाओंमें
किंचिन्मात्र भी त्रुटि नहीं होती । और ‘कामसंकल्पवर्जिताः’
अर्थात् कामनाका संकल्प किंचिन्मात्र भी नहीं, ऐसे पुरुष ‘ज्ञानाग्निदग्धकर्मा’ होते हैं अर्थात् उनके सब-के-सब कर्म
ज्ञानरूपी अग्निमें दग्ध हो जाते हैं । ज्ञान क्या ? कि प्रकृति और पुरुषका सम्बन्ध-विच्छेद
हो जाता है । उस समय क्रियाएँ सब प्रकृतिमें रहतीं हैं, अपनेमें नहीं रहतीं तो
कर्म नहीं बनते । कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे दग्ध हो जाते हैं और ज्ञान कब होता है ?
कि जब ‘सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः’
सम्पूर्ण कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं । और जबतक काम और संकल्प रहते हैं तबतक क्रियाएँ मनुष्यकी स्वयं
होती हैं । अब विचार करना है कि जब क्रियाएँ स्वयंकी होती हैं तो यह
क्रियाओंके करनेमें स्वतन्त्र है या परतन्त्र ? तो कहते हैं कि करनेमें भी अधिकारके अनुसार स्वतन्त्र है, सर्वथा स्वतन्त्र
नहीं । जैसे आप अपने देशमें रहनेके लिये स्वतन्त्र है, परन्तु दूसरे देशमें
जानेके लिये वहाँसे आज्ञा लेनी पड़ेगी । इसी प्रकार मनुष्य करनेमें अपने-अपने
क्षेत्र एवं अधिकारके अनुसार स्वतन्त्र है । हम मनुष्य लोकमें काम करनेमें
स्वतन्त्र हैं परन्तु लोकोत्तर जानेमें हम स्वतन्त्र नहीं हैं । दूसरी बात है कि हम जो कर्म करते हैं उसमें पाँच हेतु होते
हैं:‒ अधिष्ठानं तथा कर्ता
करणं च पृथग्विधम् । विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चिवात्र पञ्चमम् ॥ (गीता १८/१४) शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म
प्रारभते नरः । न्यायं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥ (गीता १८/१५) ये पाँच हेतु होते हैं । इसमें विहित कर्मके जो संस्कार हैं वे भी हेतु हैं और जो चेतन सत्ता है, वह भी हेतु है । |