समय, समझ,
सामग्री आदिकी किंचिन्मात्र भी कमी नहीं है । कमी केवल
एक ही बातकी है कि हम अपना कल्याण चाहते नहीं हैं । कल्याण तब होगा, जब हम स्वयं
चाहेंगे, स्वयं विचार करेंगे । दूसरेके कहनेसे कल्याण नहीं होगा । दूसरेके
कहनेसे भी कल्याण तब होगा, जब आप स्वयं उस बातको मानोगे अर्थात् वह बात आपकी हो
करके ही आपके काम आयेगी । आपपर जितनी
जिम्मेवारी है, उतना कर दो तो कल्याण हो जायगा । आप
ज्यों-ज्यों बुद्धिमान बनते हो, त्यों-त्यों जिम्मेवारी बढ़ती है । बुद्धि
जितनी कम है, जिम्मेवारी भी उतनी ही कम है । टैक्स इन्कमपर ही लगता है । जगात
मालपर ही लगती है । माल ही नहीं तो जगात कैसी ? आप जितनी जानकारी बढ़ाते हैं, जितना
संग्रह करते हैं, उतनी ही आपकी जिम्मेवारी बढ़ती है । अगर अपने
कल्याणके लिये अधिक वस्तुकी आवश्यकता होती तो भगवान् अधिक दे देते । दे देते ही
नहीं, दे दिया है ! भगवान्ने अधिक वस्तु दी है, अधिक बुद्धि दी है, अधिक समय दिया
है, अधिक योग्यता दी है, अधिक बल दिया है ।
भगवान्का दरबार अनन्त, अपार है । बालकका पालन-पोषण करनेके लिये माँकी
जितनी शक्ति है, वह सब-की-सब बालकके लिये ही है । ऐसे ही हमारे प्रभुकी जो शक्ति
है, वह सब-की-सब हमारे लिये ही है । सर्वसमर्थ, अनन्त सामर्थ्यवाले, परम दयालु,
परम उदार, परम कृपालु, परम सुहृद् प्रभुने जीवको उसके कल्याणके लिये मनुष्य-शरीर
दिया है तो उसमें कमी किस बातकी ? केवल इस बातको स्वीकार
करनेसे आपका रास्ता एकदम साफ हो जायगा । परन्तु चतुराई, चालाकी मत करो, सीधे-सरल
हो जाओ‒ सरल सुभाव न मन
कुटिलाई । जथ लाभ संतोष सदाई ॥ (मानस, उत्तरकाण्ड ४६/१) जितना सरल होते
हो, उतना रास्ता ठीक होता है । जितनी
चतुराई करते हो, उतना रास्ता कठिन हो जाता है । जितना कर सकते हैं, उतना ही
करना है । जितना जान सकते हैं, उतना ही जानना है । जितना मान सकते हैं, उतना ही
मानना है । अधिक करनेकी, जानने और माननेकी जरूरत नहीं है
। जितना है, उसीका सदुपयोग करना है । नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे |