मानवशरीर भगवान्की कृपासे मिला है और केवल
भगवान्की प्राप्तिसे लिये मिला है । इसलिये सब काम छोड़कर भगवान्में लग जाना
चाहिये । जिनकी उम्र
ज्यादा हो गयी है, उनको तो भगवान्में लगना ही है, जिनकी उम्र छोटी है, उनको भी
सच्चे हृदयसे भगवान्में लगना है । संसारका सब काम कर
देना है, पर अपना असली ध्येय, लक्ष्य, उद्देश्य केवल परमात्माकी प्राप्ति ही रखना
है । वास्तवमें सत्ता एक परमात्माकी ही है । संसारकी तरफ आप
ध्यान दें तो यह सब मिटनेवाला है और निरन्तर मिट रहा है । आप अपनी तरफ देखें कि जब
आप अपनी माँके पेटसे पैदा हुये, उस समय शरीरकी कैसी अवस्था थी और आज कैसी अवस्था
है । संसार निरन्तर बदलनेवाला है और परमात्मा निरन्तर रहनेवाले है । संसार रहनेवाला
है ही नहीं और परमात्मा बदलनेवाले है ही नहीं । वे परमात्मा हमारे हैं और हम
परमात्माके हैं‒इसमें दृढ़ता होनी चाहिये । जैसे छोटा बालक कहता है कि माँ मेरी है
। उससे कोई पूछे कि माँ तेरी क्यों है, तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है । उसके
मनमें यह शंका ही पैदा नहीं होती कि माँ मेरी क्यों है ? माँ मेरी है, बस, इसमें
उसको कोई सन्देह नहीं होता । इसी तरह आप भी सन्देह मत
करो और यह बात दृढ़तासे मान लो कि भगवान् मेरे हैं । भगवान्के सिवाय और कोई मेरा
नहीं है; क्योंकि वह सब छूटनेवाला है । जिनके प्रति आप बहुत सावधान रहते
हैं, वे रुपये, जमीन, मकान आदि सब छूट जायँगे । उनकी यादतक नहीं रहेगी । अगर याद
रहनेकी रीति हो तो बतायें कि इस जन्मसे पहले आप कहाँ थे ? आपके माँ-बाप,
स्त्री-पुत्र कौन थे ? आपका घर कौन-सा था ? जैसे पहले जन्मकी याद नहीं है, ऐसे ही
इस जन्मकी भी याद नहीं रहेगी । जिसकी यादतक नहीं रहेगी,
उसके लिये आप अकारण परेशान हो रहे हो ! यह सबके अनुभवकी बात है कि हमारा कोई नहीं
है । सब मिले हैं और बिछुड़ जायँगे । इसलिये ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’‒ऐसा
मानकर मस्त हो जाओ । संसारका काम तो बिगड़ रहा है तो बिगड़ने दो । वह तो
बिगड़नेवाला ही है । सुधर जाय तो भी बिगड़ेगा, परन्तु पीछे बहुत बढ़िया हो जायगा ।
दुनिया सब-की-सब चली जाय तो परवाह नहीं है । मैं और भगवान्‒इन दोके सिवाय और कोई
नहीं है । मैं केवल भगवान्का हूँ और केवल भगवान् मेरे
हैं‒इसके सिवाय और किसी बातकी तरफ देखो ही मत, विचार ही मत करो । एक परमात्मा ही सब जगह परिपूर्ण हैं । उनके
सिवाय और कोई है नहीं, कोई हुआ नहीं, कोई होगा नहीं, कोई हो सकता नहीं । वे
परमात्मा ही मेरे हैं‒ऐसा मानकर मस्त हो जाओ, प्रसन्न हो जाओ । हम अच्छे हैं कि मन्दे है, इसकी
फ़िक्र मत करो । जैसे
भरतजी महाराज चित्रकूट जाते हुए माँ कैकेयीकी तरफ देखते हैं तो उनके पैर पीछे पड़ते
हैं, और जब अपनी तरफ देखते हैं तो खड़े रहते हैं, पर जब रघुनाथजी महाराजकी तरफ
देखते हैं तो दौड़ पड़ते हैं‒ जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ । तब पथ परत उताइल पाउ ॥ (मानस, अयोध्याकाण्ड २३४/३) |