जैसे भरतजी महाराज चित्रकूट जाते हुए माँ कैकेयीकी तरफ
देखते हैं तो उनके पैर पीछे पड़ते हैं, और जब अपनी तरफ देखते हैं तो खड़े रहते हैं,
पर जब रघुनाथजी महाराजकी तरफ देखते हैं तो दौड़ पड़ते हैं‒ जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ । तब पथ परत उताइल पाउ ॥ (मानस, अयोध्याकाण्ड २३४/३) ऐसे ही आप अपनी करनीकी तरफ मत
देखो, अपने पापोंकी तरफ मत देखो, केवल भगवान्की तरफ देखो । जैसे विदुरानी
भगवान्को छिलका देती हैं तो भगवान् छिलका ही खाते हैं । छिलका खानेमें भगवान्को
जो आनन्द आता है, वैसा आनन्द गिरी खानेमें नहीं आता । कारण कि विदुरानीके मनमें यह
भाव है कि भगवान् मेरे हैं । जैसे बच्चेको भूखा देखकर माँ जिस भावसे उसको खिलाती
है, उससे भी विशेष भाव विदुरानीमें है । ऐसे ही आप
भगवान्को अपना मान लो । जीने-मरने आदि किसीकी भी परवाह मत करो । किसीसे डरो मत ।
किसीकी भी गरज करनेकी जरूरत नहीं । बस, एक ही विचार रखो कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई’ । अगर यह विचार कर लोगे तो निहाल हो जाओगे । परन्तु बहुत
धन कमा लो, बहुत सैर-शौकीनी कर लो, बहुत मान-बड़ाई प्राप्त कर लो यह सब कुछ काम
नहीं आयेगा‒ सपना-सा हो जावसी,
सुत कुटुम्ब धन धाम, हो सचेत बलदेव नींदसे, जप ईश्वरका नाम । मनुष्य तन फिर फिर नहिं होई, किया शुभ कर्म
नहीं कोई, उम्र
सब गफलतमें खोई । अब आजसे भगवान्के होकर रहो । कोई क्या कर रहा
है, भगवान् जानें । हमें मतलब नहीं है । सब संसार नाराज हो जाय तो परवाह नहीं, पर
भगवान् मेरे हैं‒इस बातको
छोड़ो मत । मीराबाईको
जँच गयी कि अब मैं भगवान्से दूर होकर नहीं रह सकती‒‘मिल
बिछुड़न मत कीजै’ तो उनका डेढ़-दो मनका थैला शरीर भी नहीं मिला, भगवान्में
समा गया ! एक ठाकुरजीके सिवाय किसीसे कोई मतलब नहीं है । अंतहुँ तोहिं तजैंगे पामर, तू न ताजे अबही ते । (विनयपत्रिका ११८) अन्तमें तुझे छोड़ देंगे, कोई तुम्हारा नहीं रहेगा तो फिर
पहलेसे ही छोड़ दे । साधु विचारकर भली समझ्या, दिवी जगत
को पूठ । पीछे
देखी बिगड़ती, पहले
बैठा रूठ ॥
पीछे तो सब बिगड़ेगी ही, फिर अपना काम बिगाड़कर बात बिगड़े तो
क्या लाभ ? अपने तो अभी-अभी भगवान्के हो जाओ । तुम तुम्हारे, हम हमारे । हमारा कोई नहीं, हम किसीके नहीं, केवल भगवान् हमारे हैं, हम
भगवान्के हैं । भगवान्के चरणोंकी शरण होकर मस्त हो जाओ । कौन राजी है,
कौन नाराज; कौन मेरा है, कौन पराया, इसकी परवाह मत करो । वे निन्दा करें या
प्रशंसा करें; तिरस्कार करें या सत्कार करें, उनकी मरजी । हमें निन्दा-प्रशंसा,
तिरस्कार-सत्कारसे कोई मतलब नहीं । सब राजी ही जायँ तो हमें क्या मतलब और सब नाराज हो जायँ तो हमें
क्या मतलब ? |