वास्तवमें गुरुकी महिमाका पूरा वर्णन कोई कर सकता ही नहीं ।
गुरुकी महिमा भगवान्से भी अधिक है । इसलिये शास्त्रमें गुरुकी बहुत महिमा आयी है
। परन्तु वह महिमा
सच्चाईकी है, दम्भ-पाखण्डकी नहीं । आजकल दम्भ-पाखण्ड बहुत हो गया है और
बढ़ता ही जा रहा है । कौन अच्छा है और कौन बुरा है‒इसका जल्दी पता लगता नहीं । जो बुराई बुराईके
रूपमें आती है, उसको मिटाना सुगम होता है । परन्तु जो बुराई अच्छाईके रूपमें आती
है, उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है । सीताजीके सामने रावण, राजा
प्रतापभानुके सामने कपट मुनि और हनुमान्जीके सामे कालनेमि आये तो वे उनको पहचान
नहीं सके, उनके फेरेमें आ गये; क्योंकि उनका स्वांग साधुओंका था । आजकल भी शिष्योंकी अपने गुरुके प्रति जैसी श्रद्धा देखनेमें
आती है, वैसा गुरु स्वयं होता नहीं । इसलिये सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका कहते थे
कि आजकलके गुरुओंमें हमारी श्रद्धा नहीं होती है, प्रत्युत उनके चेलोंमें श्रद्धा
होती है । कारण कि चेलोंमें अपने गुरुके प्रति जो श्रद्धा है, वह आदरणीय है । शास्त्रोंमें आयी गुरु-महिमा ठीक होते हुए भी
वर्तमानमें प्रचारके योग्य नहीं है । कारण कि आजकल दम्भी–पाखण्डी लोग गुरु महिमाके
सहारे अपना स्वार्थ सिद्ध करते है । इसमें कलियुग भी सहायक है; क्योंकि कलियुग अधर्मका मित्र है‒‘कलिनाधर्ममित्रेण’(पद्मपुराण, उत्तर॰ १९३।३१) । वास्तवमें
गुरु महिमा प्रचार करनेके लिये नहीं है प्रत्युत धारण करनेके लिये है । कोई गुरु
खुद ही गुरु-महिमाकी बातें करता है, गुरु-महिमाकी पुस्तकोंका प्रचार करता है तो
इससे सिद्ध होता है कि उसके मनमें गुरु बननेकी इच्छा है । जिसके भीतर गुरु बननेकी इच्छा होती है, उससे दूसरोंका भला नहीं हो सकता ।
इसलिये मैं गुरुका निषेध नहीं करता हूँ, प्रत्युत पाखण्डका निषेध करता हूँ ।
गुरुका निषेध कोई कर सकता ही नहीं । गुरुकी महिमा वास्तवमें शिष्यकी दृष्टिसे है, गुरुकी दृष्टिसे
नहीं । एक गुरुकी दृष्टि होती है, एक शिष्यकी दृष्टि होती है और एक तीसरे आदमीकी
दृष्टि होती है । गुरुकी दृष्टि यह होती है कि मैंने कुछ नहीं किया, प्रत्युत जो
स्वतः-स्वाभाविक वास्तविक तत्त्व है, उसकी तरफ शिष्यकी दृष्टि करा दी । तात्पर्य
हुआ कि मैंने उसीके स्वरूपका उसीको बोध कराया है, अपने पाससे उसको कुछ दिया ही
नहीं । चेलेकी दृष्टि यह होती है कि गुरुने मेरेको सब कुछ दे दिया है । जो कुछ हुआ
है, सब गुरुकी कृपासे ही हुआ है । तीसरे आदमीकी दृष्टि यह होती है कि शिष्यकी
श्रद्धासे ही उसको तत्त्वबोध हुआ है । असली महिमा उस गुरुकी है, जिसने गोविन्दसे मिला
दिया है । जो गोविन्दसे तो मिलाता नहीं, कोरी बातें ही करता है, वह गुरु नहीं होता
है । ऐसे गुरुकी महिमा नकली और केवल दूसरोंको ठगनेके लिये होती है ! नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?’ पुस्तकसे |

