विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशना- स्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टैव मोहं गताः । शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा- स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे ॥ (भर्तृहरिशतक) ‘जो वायु-भक्षण करके, जल पीकर और सूखे पत्ते
खाकर रहते थे, वे विश्वामित्र, पराशर आदि भी स्त्रियोंके सुन्दर मुखको देखकर मोहको
प्राप्त हो गये, फिर जो लोग शाली धान्य (सांठी चावल) को घी, दूध और दहीके साथ खाते
हैं, वे यदि अपनी इन्द्रियका निग्रह कर सकें
तो मानो विन्धायाचल पर्वत समुद्रपर तैरने लगा !’ ऐसी
स्थितिमें जो जवान स्त्रियोंको अपनी चेली बनाते हैं, उनको अपने आश्रममें रखते हैं,
उनका स्वप्नमें भी कल्याण हो जायगा‒यह बात मेरेको जँचती नहीं ! फिर उनके द्वारा
आपका भला कैसे हो जायगा ? केवल धोखा ही होगा । प्रश्न‒ऐसा
कहते हैं कि जीवन्मुक्त महात्मा भोग भी भोगे तो उसको दोष नहीं लगता । क्या यह ठीक
है ? उत्तर‒ऐसा सम्भव ही नहीं
है । जीवन्मुक्त भी हो जाय और भोग भी भोगता रहे‒यह सर्वथा असम्भव बात है । भोग तो
साधनकालमें ही छूट जाते हैं, फिर सिद्ध पुरुषको भोग भोगनेकी जरूरत भी क्यों पड़ेगी
? ऐसी बातें दम्भी-पाखण्डी लोग ही अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये फैलाते हैं । इसलिये रामायणमें आया है‒ मिथ्यारंभ दंभ रत जोई
। ता कहुँ संत कहइ सब कोई ॥ निराचार जो श्रुति पथ
त्यागी । कलियुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ॥ (मानस, उत्तरकाण्ड ९८/२,४) पर त्रिय लंपट कपट सयाने । मोह द्रोह ममता लपटाने
॥ तेइ अभेदबादी ग्यानी नर । देखा मैं चरित्र कलिजुग कर ॥ (मानस, उत्तरकाण्ड १००/१) बुद्धाद्वैतसतत्त्वस्य
यथेष्टाचरणं यदि । शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचि भक्षणे ॥ ‘यदि अद्वैत तत्त्वका ज्ञान हो जानेपर भी
यथेच्छाचार बना रहा तो फिर अशुद्ध वस्तु (मांस-मदिरा आदि) खानेमें यथेच्छाचारी
तत्त्वज्ञ और कुत्तेमें भेद ही क्या रह गया ?’ यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा पुनः सेवेत मैथुनम् । षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ (सक्न्दपुराण, काशी॰ पू॰ ४०/१०७) ‘जो संन्यास लेनेके बाद पुनः स्त्रीसंग करता
है, वह साठ हजार वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है ।’ भोगोंका कारण कामना है और कामनाका सर्वथा नाश
होनेपर ही जीवन्मुक्ति होती है । भोगोंकी कामना तो साधककी भी आरम्भमें ही मिट जाती
है । अगर किसी ग्रन्थमें ऐसी
बात आयी हो कि जीवन्मुक्त भोग भी भोगे तो उसको दोष नहीं लगता, तो यह बात उसकी
महिमा बतानेके लिये है, विधि नहीं है । इसका तात्पर्य भोग भोगनेमें नहीं है ।
जैसे, गीतामें (१८/१७) जीवन्मुक्तके लिये आया है कि ‘जिसका
अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह इन सम्पूर्ण प्राणियोंको
मारकर भी न मारता है और न बँधता है’[*] तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जीवन्मुक्त महात्मा
सम्पूर्ण प्राणियोंको मार देता है !
[*] यस्य
नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
(गीता १८/१७) |

