गुरु बनानेसे कल्याण नहीं होता, प्रत्युत गुरुकी बात
माननेसे कल्याण होता है; क्योंकि गुरु शब्द होता है, शरीर नहीं‒ जो तू चेला देह को, देह
खेह की खान
। जो तू चेला सबद को, सबद ब्रह्म कर मान ॥ गुरु शरीर नहीं होता और शरीर गुरु नहीं होता‒‘न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत’ (श्रीमद्भा॰११/१७/२७) । इसलिये गुरु कभी मरता नहीं । अगर गुरु
मर जाय तो चेलेका कल्याण कैसे होगा ? शरीरको तो अधम कहा गया है‒ छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम सरीरा ॥ (मानस, किष्किन्धाकाण्ड ११/२)
अगर किसीका हाड़-मांसमय शरीर गुरु होता है, तो वह
अधम होता है, कालनेमि होता है । इसलिये गुरुमें शरीर-बुद्धि
करना और शरीरमें गुरु-बुद्धि करना अपराध है । सन्त एकनाथजीके चरित्रमें यह बात बहुत विशेषतासे मिलती है
। शास्त्रकी प्रक्रियाके अनुसार पहले तीर्थयात्रा की जाती है, फिर उपासना की जाती
है और फिर ज्ञान होता है । परन्तु एकनाथजीके जीवनमें उलटा क्रम मिलता है । उनको
पहले ज्ञान हुआ, फिर उन्होंने उपासना की और फिर गुरुजीने तीर्थयात्राकी आज्ञा दी ।
जब वे तीर्थयात्रामें थे, तब उनके गाँव पैठणका एक ब्राह्मण उनके गुरुजीके पास
देवगढ़ पहुँचा और बोला कि ‘महाराज ! आपके यहाँ जो एकनाथ था, उनके दादा-दादी बहुत
बूढ़े हो गये हैं और एकनाथको याद कर-करके रोते रहते हैं । गुरुजीको सुनकर आश्चर्य
हुआ कि एकनाथ मेरे पास इतने वर्ष रहा, पर उसने अपने दादा-दादीके विषयमें कभी कहा
ही नहीं ! उन्होंने एक पत्र लिखकर उस ब्राह्मणको दिया और कहा वह तीर्थयात्रा करते
हुए जब पैठण आयेगा, तब उसको मेरा यह पत्र दे देना । मैंने कहा है, इसलिये वह पैठण
जरूर आयेगा । ब्राह्मण पत्र लेकर चला गया । घूमते-घूमते जब एकनाथजी वहाँ पहुँचे तो
वे दादा-दादीसे मिलने गाँवमें नहीं गये, प्रत्युत गाँवके बाहर ही ठहर गये । उस
ब्राह्मणने जब एकनाथजीको देखा तो उनको पहचान लिया और उनके दादाजीका हाथ पकड़कर उनको
एकनाथजीके पास ले चला । संयोगसे एकनाथजी रास्तेमें ही मिल गये । दादाजीने स्नेहपूर्वक एकनाथजीको गलेसे लगाया और गुरुजीका पत्र निकालकर कहा कि ‘यह तुम्हारे
गुरुजीका पत्र है’ । यह सुनते ही एकनाथजी गद्गद हो गये । उन्होंने कपड़ा बिछाकर
उसके ऊपर पत्र रखा, उसकी परिक्रमा करके दण्डवत् प्रणाम किया, फिर उसको पढ़ा । उसमें
लिखा था कि ‘एकनाथ, तुम वहीं रहना’ । एकनाथजी वहीं बैठ गये । फिर उम्रभर वहाँसे
कहीं गये नहीं । वहीं मकान बन गया । सत्संग शुरू हो गया । दादा-दादी उनके पास आकर
रहे । फिर कभी गुरुजीसे मिलने भी नहीं गये । विचार करें, गुरु शरीर हुआ कि वचन हुआ
? जब गुरुजीका शरीर शान्त हो गया तो वे बोले कि ‘गुरु
मरे और चेला रोये तो दोनोंको क्या ज्ञान मिला ?’ तात्पर्य है कि गुरु मरता नहीं और
चेला रोता नहीं । |