।। श्रीहरिः ।।

                                                   


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७८ गुरुवार

        संन्यासी साधकों और 
    कीर्तनकारोंसे नम्र निवेदन


[ यह लेख पहले ‘कल्याण’ के ९ वें वर्षमें (संवत् १९९१, सन् १९३४ में) प्रकाशित हुआ था । वर्तमान समयमें इसकी विशेष उपयोगिता देखते हुए इसे यहाँ दिया जा रहा है । ]

श्रीपरमात्मदेव तथा उनके भक्तोंकी कृपा और आज्ञासे आज मैं यहाँ संन्यासी साधकोंके आचरण और कीर्तनके सम्बन्धमें उन भावोंको लिखनेकी चेष्टा करता हूँ जो मुझे प्रिय लगते हैं । यद्यपि मैं अपनेको लिखने और इस तरह उपदेश-आदेश देनेका किसी तरह भी अधिकारी नहीं मानता, और न मुझसे ऐसे आचरण पूरी तौरसे बनते ही हैं, तथापि मुझको शास्त्रीय तथा सन्तोंके आदरणीय आचार-विचार कुछ प्रिय मालूम होते हैं, इसीलिये ऐसी चर्चामें समय बिताना अपना अहोभाग्य समझकर कुछ प्रयास कर रहा हूँ । आशा करता हूँ, मेरे अन्यान्य साधक भाई भी ऐसे विचार यदा-कदा प्रकट करेंगे; क्योंकि ऐसा करनेसे मुझ-सरीखे लोगोंको उनके विचार पढ़नेको मिलेंगे और उन भाइयोंका भी कुछ समय सच्चर्चामें बीतेगा । सन्त-महात्मा तथा शास्त्रोंके वचनोंके अनुसार सत्संगमें सुने हुए और ग्रन्थोंमें पढ़े हुए जो कुछ विचार मैं यहाँ लिखता हूँ, उनमें यदि कोई बात अनुचित हो तो विज्ञ महानुभाव अपना ही बालक समझकर मुझे क्षमा करनेकी कृपा करेंगे ।

साधकको हर्ष, शोक, काम, क्रोध आदिसे अलग रहनेकी पूरी कोशिश करनी चाहिये । कम-से-कम इनके वशीभूत तो कभी नहीं होना चाहिये । उसमें भी मुझ-जैसोंको तो राग-द्वेषस्वरूप कामिनी और काञ्चनसे उसी तरह डरना चाहिये जैसे साधारण लोग भूत, प्रेत, सर्प, व्याघ्रादिसे डरते हैं और यह समझना चाहिये कि जिस क्षण कामिनी-काञ्चनमें संन्यासी साधककी आसक्ति हुई कि बस, उसी क्षण उसका पतन हो गया ।

यह कभी नहीं समझना चाहिये कि राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि अन्तःकरणके धर्म हैं । ये धर्म नहीं हैं, विकार हैं । जो इनको अन्तःकरणके धर्म समझ लेता है वह शरीर-नाश होनेतक अन्तःकरण रहनेके कारण इनका भी रहना अनिवार्य मानता है; फलतः वह अपनेको ज्ञानी मानकर भी ऐसा समझ लेता है कि राग-द्वेष, काम-क्रोधादि तो जबतक अन्तःकरण है तबतक रहेंगे ही, मेरा इनसे क्या सम्बन्ध है ? वास्तवमें ऐसा समझना भ्रम ही है । जो ऐसा समझता है और राग-द्वेष, काम-क्रोध आदिसे बचनेकी कोशिश नहीं करता, वह ज्ञानी तो दूर रहा, अच्छा साधक भी नहीं है ।

यह निश्चय समझ रखना चाहिये कि सच्चे ज्ञानीमें वस्तुतः काम-क्रोध आदि रहते ही नहीं । जिसे खूब अच्छा बोलना आता है, जो शास्त्रवाक्योंद्वारा ब्रह्मका सुन्दर निरूपण कर सकता है अथवा जो ज्ञानपर अच्छे-अच्छे तर्कप्रधान निबन्ध लिख सकता है, वह ज्ञानी ही है, ऐसा नहीं समझना चाहिये । ये सब बातें तो ग्रन्थोंके पढ़नेसे हो सकती हैं । नाटकमें भी शुकदेवका पार्ट किया जा सकता है । ज्ञानी तो वह है जो अज्ञानके समुद्रसे सर्वथा तर गया । राग-द्वेष, काम-क्रोधादि अज्ञानमें ही हैं । ज्ञानमें तो इनका लेश भी नहीं ।