।। श्रीहरिः ।।

                                                    


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७८ शुक्रवार

        संन्यासी साधकों और 
    कीर्तनकारोंसे नम्र निवेदन


जो लोग वास्तविक ब्राह्मी स्थितितक पहुँचनेसे पहले ही केवल पुस्तकीय ज्ञानके आधारपर अपनेको ज्ञानी मान बैठते हैं और विधि-निषेधसे मुक्त समझकर साधन छोड़ बैठते हैं, वे प्रायः गिर ही जाते हैं । क्योंकि जबतक अज्ञान है तबतक इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्ति है ही, और पाप होनेमें प्रधान कारण भोगोंकी आसक्ति ही है । फिर, जहाँ काम-क्रोधादि ही अन्तःकरणके अनिवार्य धर्म मान लिये जायँ, वहाँ तो कहना ही क्या ? अतएव मुझ-जैसे साधकोंको तो बड़ी ही सावधानीके साथ दुर्गुणोंसे बचते रहनेका पूरा ध्यान रहना चाहिये । अपनेको राग-द्वेष, काम-क्रोध-लोभादि दोषोंसे हरदम बचाते रहना चाहिये । संन्यासाश्रममें तो साधकको कभी भूलकर भी स्त्री और धनके साथ किसी प्रकारका भी सम्बन्ध न जोड़ना चाहिये । इनका संग ही न करना चाहिये । जो सिद्ध महापुरुष हैं, उनमें तो कोई ऐसा दोष रह ही नहीं सकता ।

यह स्मरण रखना चाहिये कि ढोंगी ज्ञानीकी अपेक्षा अज्ञानी रहना अच्छा है; उसको पापोंसे डर तो रहता है । ढोंगी तो जान-बूझकर ढोंगकी रक्षाके लिये भी पाप करता है । अतएव ढोंगको कभी कल्पनामें भी न आने देना चाहिये; सच्चा संन्यासी बनना चाहिये । और‒

यावदायुस्त्वया वन्द्यो वेदान्तो गुरुरीश्वरः ।

मनसा कर्मणा वाचा   श्रुतेरेवैष   निश्चयः ॥

(तत्त्वोपदेश ८६)

‒आचार्यचरणोंकी इस उक्तिके अनुसार शास्त्रकी विधिको सर्वदा मानते रहना चाहिये । संन्यासीके पालन करनेयोय कुछ धर्म ये हैं‒गृहस्थोंका संग न करे । स्त्रीकी तो तस्वीर भी न देखे । धनका स्पर्श न करे । किसीके साथ कोई नाता न जोड़े । किसी भी विषयमें ममत्व न करे । मान-बड़ाई स्वीकार न करे । वैराग्यकी बड़ी सावधानीसे रक्षा करे । इन्द्रियोंको संयममें रखे ।वस्तुओंका संग्रह न करे । जमात न बनावे । घर न बाँधे । व्यर्थ न बोले । ब्रह्मचर्य धारण करे । काम-क्रोध-लोभादिसे सदा मुक्त रहे । किसीसे द्वेष न करे । किसीमें राग न करे । नित्य आत्मचिन्तन या भगवत्स्मरणमें ही लगा रहे ।

जो संन्यासी अपने इस संन्यास-धर्मका पालन नहीं करता वह प्रायः गिर जाता है । अतएव अपने आश्रम-धर्मका पूरा पालन करना चाहिये । विधि-निषेधसे परे पहुँचे हुए महापुरुषोंके द्वारा भी लोकसंग्रहार्थ आदर्श शुभ कर्म ही हुआ करते हैं ।

अगर भक्त बननेकी चाह हो तो भगवान्‌के शरण होकर भगवान्‌का सतत भजन करते रहना चाहिये । लोग भक्त समझें या कहें, इस बातकी परवा छोड़ ही देनी चाहिये । भगवान्‌का नाम और गुणकीर्तन प्रेमसे करते रहना चाहिये । जहाँतक बने, अपनी भक्तिको प्रकट नहीं होने देना चाहिये । लोग हमारी पूजा करें, हमारा सम्मान करें, ऐसा अवसर ही नहीं आने देना चाहिये । मान-बड़ाईसे सदा सावधानीसे बचते रहना चाहिये । स्त्रीका और स्त्रीसंगियोंका संग तो कभी नहीं करना चाहिये । धनका लोभ मनमें न आने देना चाहिये । प्रतिष्ठाको तो शूकरीविष्ठा ही समझना चाहिये ।