।। श्रीहरिः ।।

                                                                               


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ पूर्णिमा, वि.सं.२०७८ गुरुवार

         नित्ययोगकी प्राप्ति

‘यदा हि नेन्द्रियार्थेषु...........योगारूढ़स्तदोच्यते’यहाँ यदा और तदा पद देनेका तात्पर्य है कि आप जिस समय पदार्थोमें, क्रियाओंमें और संकल्पमें आसक्ति नहीं करेंगे, उसी समय आप योगारूढ़ हो जायँगे । अब ऐसा आप एक घण्टेमें कर लें, एक जन्ममें कर लें अथवा अनेक जन्मोंमें कर लें, यह आपकी मरजी है !

योगकी प्राप्ति (अनुभूति) होनेपर फिर उससे कभी निवृत्ति नहीं होती‘यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः’ (गीता १५/४) । कारण कि निवृत्ति गुणोंके संगसे होती है‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । वहाँ गुणोंका अत्यन्त अभाव है, फिर निवृत्ति कैसे होगी ? भगवान्‌का अंश भगवान्‌में मिल गया ! जैसे, आप कितने ही बड़े धनी हैं और बड़े-बड़े होटलोंमें बैठे हैं, फिर भी आपका नाम मुसाफिर है । घर चाहे टूटा-फूटा छप्पर हो, पर वहाँ पहुँच गये तो अब आप मुसाफिर नहीं रहे, घर पहुँच गये । ऐसे ही नित्ययोगकी प्राप्ति हो गयी तो हम अपने घर पहुँच गये !

अभी वस्तुओंकी और क्रियाओंकी सत्ता मानते हैं, इसलिये कहते हैं‘यदा ही नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते’ । वास्तवमें इनकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है । परमात्मतत्त्वमें न वस्तु है और न क्रिया है । वह वस्तुरहित और क्रियारहित तत्त्व है, इसलिये उसकी प्राप्ति अभ्याससाध्य नहीं है । मन-बुद्धि-इन्द्रियोंकी सहायता लेते हैं और प्रयत्‍न करते हैं, तब अभ्यास होता है । परमात्मतत्त्व तो ज्यों-का-त्यों है । उसकी प्राप्तिमें विधि नहीं चलती, प्रत्युत निषेध चलता है । वस्तु और क्रियाका निषेध करनेपर वह स्वतः है‘शिष्यते शेषसञ्ज्ञः’ । इसलिये इसमें कुछ करनेकी बात ही नहीं है । यह करण-निरपेक्ष तत्त्व है ।

जिसके द्वारा तत्काल क्रियाकी सिद्धि होती है, उसका नाम ‘करण’ होता है‘साधकतमं करणम्, ‘क्रियाया निष्पत्तिर्यद्‌व्यापारादनन्तरम्’ । जैसे, ‘रामके बाणसे बालि मारा गया’इस वाक्यमें करणत्व बाणमें है, धनुष्य, प्रत्यंचा, हाथ आदिमें नहीं । अतः क्रियाकी सिद्धिमें करण काम आता है । परन्तु जहाँ क्रिया है ही नहीं, वहाँ करण क्या काम आयेगा ? क्रियारहित तत्त्वमें कुछ न करना ही ‘करना’ है । कहते हैं कि अन्तःकरणकी शुद्धिसे वह तत्त्व मिलता है । परन्तु अन्तःकरणकी शुद्धिसे वह तत्त्व मिलता है, जो करण-साध्य होता है । जो तत्त्व करण-साध्य है ही नहीं, उसकी प्राप्तिमें अन्तःकरणकी शुद्धि-अशुद्धिसे क्या मतलब ? मतलब ही नहीं है । वास्तवमें करणके साथ सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे करणकी जैसी शुद्धि होती है, वैसी शुद्धि किसी उद्योगसे कभी हुई नहीं, कभी होगी नहीं और कभी हो सकती नहीं । कारण कि उद्योग, प्रयत्‍न करेंगे तो जडकी सहायता लेंगे । यदि जडकी सहायता लेंगे तो जडसे ऊँचे कैसे उठेंगे ?

जिन क्रियाओंका आदि और अन्त होता है, उन क्रियाओंके जनकको ‘कारक’ कहते है । नित्ययोगकी प्राप्तिमें किसी कारककी जरुरत नहीं है अर्थात् कर्ताकी, कर्मकी, करणकी, अधिकरणकी सम्प्रदानकी, अपादानकी, किसीकी भी जरुरत नहीं है, उसकी प्राप्तिमें इन सभी कारकोंका वियोग है । वह कारक-निरपेक्ष स्वतःसिद्ध तत्त्व है ।

जैसे परमात्मामें क्रिया और वस्तुका, कर्तृत्व और भोक्तृत्वका अभाव है, ऐसे ही आत्मामें भी कर्तृत्व और भोक्तृत्वका अभाव है‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/३१) अर्थात् शरीरमें रहते हुए भी आत्मा न करता है और न लिप्त होता है । तात्पर्य है कि कर्तृत्वका अभाव और निर्लिप्तता पहलेसे ही विद्यमान है, इनको कहींसे लाना नहीं है । न कर्तृत्वका अभाव करना है और न निर्लिप्तता लानी है, ये तो स्वतःसिद्ध हैं । कर्तृत्व और लिप्तता अपनी बनायी हुई है; अतः इनका त्याग करना है । इनका त्याग होते ही नित्ययोग स्वतःसिद्ध है[*] । भगवान्‌ कहते है—

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं      यदा द्रष्टानुपश्यति ।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति   मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥

(गीता१४/१९)

‘जब विवेकी मनुष्य तीनों गुणोंके सिवाय अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता और अपनेको गुणोंसे पर अनुभव करता है, तब वह मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है ।’

‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे


[*] इस विषयको विस्तारसे समझनेके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित ‘गीता दर्पण’ में आया ‘गीतामें कर्तृत्व-भोक्तृत्वका निषेध’ शीर्षक लेख देखना चाहिये ।