‘यदा हि नेन्द्रियार्थेषु...........योगारूढ़स्तदोच्यते’—यहाँ ‘यदा’ और ‘तदा’ पद देनेका तात्पर्य है कि आप जिस समय
पदार्थोमें, क्रियाओंमें और संकल्पमें आसक्ति नहीं करेंगे, उसी समय आप योगारूढ़ हो
जायँगे । अब ऐसा आप एक घण्टेमें कर लें, एक जन्ममें कर लें अथवा अनेक जन्मोंमें कर
लें, यह आपकी मरजी है ! योगकी प्राप्ति (अनुभूति) होनेपर फिर उससे कभी निवृत्ति
नहीं होती—‘यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः’ (गीता १५/४) । कारण कि निवृत्ति गुणोंके संगसे होती है—‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । वहाँ गुणोंका अत्यन्त अभाव है, फिर निवृत्ति कैसे होगी ?
भगवान्का अंश भगवान्में मिल गया ! जैसे, आप कितने ही
बड़े धनी हैं और बड़े-बड़े होटलोंमें बैठे हैं, फिर भी आपका नाम मुसाफिर है । घर चाहे
टूटा-फूटा छप्पर हो, पर वहाँ पहुँच गये तो अब आप मुसाफिर नहीं रहे, घर पहुँच गये ।
ऐसे ही नित्ययोगकी प्राप्ति हो गयी तो हम अपने घर पहुँच गये ! अभी वस्तुओंकी और क्रियाओंकी सत्ता मानते हैं, इसलिये कहते
हैं—‘यदा ही
नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते’ । वास्तवमें इनकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है । परमात्मतत्त्वमें न वस्तु है
और न क्रिया है । वह वस्तुरहित और क्रियारहित तत्त्व है, इसलिये उसकी प्राप्ति अभ्याससाध्य
नहीं है । मन-बुद्धि-इन्द्रियोंकी सहायता लेते हैं और प्रयत्न करते हैं, तब
अभ्यास होता है । परमात्मतत्त्व तो ज्यों-का-त्यों है । उसकी प्राप्तिमें विधि
नहीं चलती, प्रत्युत निषेध चलता है । वस्तु और क्रियाका निषेध करनेपर वह स्वतः है—‘शिष्यते शेषसञ्ज्ञः’ । इसलिये इसमें कुछ करनेकी बात ही नहीं है । यह
करण-निरपेक्ष तत्त्व है । जिसके द्वारा तत्काल क्रियाकी सिद्धि होती है, उसका नाम
‘करण’ होता है—‘साधकतमं करणम्, ‘क्रियाया निष्पत्तिर्यद्व्यापारादनन्तरम्’ । जैसे, ‘रामके बाणसे बालि मारा गया’—इस वाक्यमें करणत्व बाणमें है, धनुष्य, प्रत्यंचा, हाथ
आदिमें नहीं । अतः क्रियाकी सिद्धिमें करण काम आता है । परन्तु जहाँ क्रिया है ही
नहीं, वहाँ करण क्या काम आयेगा ? क्रियारहित तत्त्वमें कुछ न करना ही ‘करना’ है ।
कहते हैं कि अन्तःकरणकी शुद्धिसे वह तत्त्व मिलता है । परन्तु अन्तःकरणकी शुद्धिसे
वह तत्त्व मिलता है, जो करण-साध्य होता है । जो तत्त्व करण-साध्य है ही नहीं, उसकी
प्राप्तिमें अन्तःकरणकी शुद्धि-अशुद्धिसे क्या मतलब ? मतलब ही नहीं है । वास्तवमें करणके साथ सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे करणकी जैसी शुद्धि
होती है, वैसी शुद्धि किसी उद्योगसे कभी हुई नहीं, कभी होगी नहीं और कभी हो सकती
नहीं । कारण कि उद्योग, प्रयत्न करेंगे तो जडकी सहायता लेंगे । यदि जडकी सहायता
लेंगे तो जडसे ऊँचे कैसे उठेंगे ? जिन क्रियाओंका आदि और अन्त होता है, उन क्रियाओंके जनकको
‘कारक’ कहते है । नित्ययोगकी प्राप्तिमें किसी कारककी जरुरत नहीं है अर्थात्
कर्ताकी, कर्मकी, करणकी, अधिकरणकी सम्प्रदानकी, अपादानकी, किसीकी भी जरुरत नहीं
है, उसकी प्राप्तिमें इन सभी कारकोंका वियोग है । वह कारक-निरपेक्ष स्वतःसिद्ध
तत्त्व है । जैसे परमात्मामें क्रिया और वस्तुका, कर्तृत्व और भोक्तृत्वका
अभाव है, ऐसे ही आत्मामें भी कर्तृत्व और भोक्तृत्वका अभाव है—‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता
१३/३१) अर्थात् शरीरमें रहते हुए
भी आत्मा न करता है और न लिप्त होता है । तात्पर्य है कि कर्तृत्वका अभाव और
निर्लिप्तता पहलेसे ही विद्यमान है, इनको कहींसे लाना नहीं है । न कर्तृत्वका अभाव
करना है और न निर्लिप्तता लानी है, ये तो स्वतःसिद्ध हैं । कर्तृत्व और लिप्तता
अपनी बनायी हुई है; अतः इनका त्याग करना है । इनका त्याग होते ही नित्ययोग
स्वतःसिद्ध है[*] । भगवान् कहते है— नान्यं
गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति
। गुणेभ्यश्च
परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ (गीता१४/१९) ‘जब
विवेकी मनुष्य तीनों गुणोंके सिवाय अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता और अपनेको
गुणोंसे पर अनुभव करता है, तब वह मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है ।’ —‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे [*] इस विषयको विस्तारसे समझनेके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित
‘गीता दर्पण’ में आया ‘गीतामें कर्तृत्व-भोक्तृत्वका
निषेध’ शीर्षक लेख देखना चाहिये । |

