।। श्रीहरिः ।।

                                                                                   


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७८ सोमवार

             एक नयी बात

चिन्मय सत्ता शरीरस्थ अथवा प्रकृतिस्थ हो ही नहीं सकती । वह आकाशकी तरह सर्वत्र स्थित (सर्वगत) है‒‘नित्यः सर्वगतः’ (गीता २/२४) । वह सम्पूर्ण शरीरोंके बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है । वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है ।

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं   प्रकाशयति भारत ॥

(गीता १३/३३)

‘हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण संसारको प्रकाशित करता है, ऐसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्रोंको प्रकाशित करता है ।’

सूर्यके प्रकाशमें सम्पूर्ण शुभ-अशुभ क्रियाएँ होती हैं । सूर्यके प्रकाशमें कोई वेदका पाठ करता है, कोई शिकार करता है । परन्तु सूर्यको उन क्रियाओंका न तो पुण्य लगता है, न पाप । कारण कि सूर्य उन क्रियाओंका न तो कर्ता बनता है, न भोक्ता ही बनता है । इसी तरह आत्मा (सर्वव्यापी सत्ता) सम्पूर्ण शरीरोंको सत्ता-स्फूर्ति देता है, पर वास्तवमें वह न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒

यस्य नाहंकृतो भावो   बुद्धिर्यस्य  न लिप्यते ।

हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥

(गीता १८/१७)

‘जिसका अहंकृतभाव (मैं कर्ता हूँ‒ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह (युद्धमें) इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है ।’

जैसे गंगाजीमें कोई डूबकर मर जाता है तो गंगाजीको पाप नहीं लगता और कोई स्नान आदि करता है तो गंगाजीको पुण्य नहीं लगता । कारण कि गंगाजीमें अहंकृतभाव (कर्तृत्व) और बुद्धिकी लिप्तता (भोक्तृत्व) नहीं है ।

कर्तृत्व-भोक्तृत्व प्रकृतिमें ही है, स्वरूपमें नहीं । इसलिये अपने स्वरूपमें स्थित तत्त्वज्ञ महापुरुष ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’‒ऐसा अनुभव करता है‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् (गीता ५/८) । खाने-पीने, सोने-जगने, नौकरी-धन्धा करने आदि सम्पूर्ण लौकिक क्रियाएँ और श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि सम्पूर्ण पारमार्थिक क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं । स्वरूपमें कोई भी क्रिया सम्भव नहीं है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह शास्त्रविहित लौकिक तथा पारमार्थिक क्रियाओंका बाहरसे त्याग तो न करे, पर उनमें अपना कर्तृत्व न माने अर्थात्‌ उनको अपने द्वारा होनेवाली और अपने लिये न माने । क्रियाका महत्त्व वास्तवमें जड़ताका ही महत्त्व है । क्रियाकी मुख्यता होनेपर वर्षोंतक साधन करनेपर भी प्रत्यक्ष लाभ नहीं दीखता । इसलिये साधकके अन्तःकरणमें क्रियाका महत्त्व न होकर चेतन-विभागका ही महत्त्व होना चाहिये । साधक शरीर नहीं होता, जबकि क्रिया शरीरके द्वारा ही होती है । साधकका स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और सत्तामात्रमें कोई क्रिया नहीं होती । क्रिया और पदार्थ संसारका स्वरूप है ।

कर्तृत्व-भोक्तृत्व अपनेमें नहीं हैं, प्रत्युत अज्ञानके कारण अपनेमें माने हुए हैं । अपनेमें माननेपर भी वास्तवमें हम कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित ही हैं‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ । तात्पर्य है कि शरीरमें अपनी स्थिति माननेपर भी वास्तवमें हम शरीरसे असंग हैं । अपनेमें बन्धनकी मान्यता करनेपर भी वास्तवमें हम मुक्त ही हैं । इस सत्यको स्वीकार करना साधकके लिये बहुत ही आवश्यक है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘एक नयी बात’ पुस्तकसे