।। श्रीहरिः ।।

                                                                                    


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७८ मंगलवार

                 तू-ही-तू

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उपनिषद्‌में आता है कि आरम्भमें एकमात्र अद्वितीय सत्‌ ही विद्यमान था‒‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग्य६/२/१) । वह एक ही सत्स्वरूप परमात्मतत्त्व एकसे अनेकरूप हो गया‒

(१)   सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति । (छान्दोग्य ६/२/३)

(२)   सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति । (तैत्तेरीय २/६)

(३)   एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति । (कठ २/२/१२)

एकसे अनेक होनेपर भी वह एक ही रहा, उसमें नानात्व नहीं आया

(१)   ‘नेह नानास्ति किञ्चन’

(बृहदारण्यक ४/४/१९, कठ २/१/११)

(२)   ‘एकोऽपि सन् बहुधा यो विभाति’

(गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्)

(३)   ‘यत्सक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म’ (बृहदारण्यक ३/४/१)

(४)   ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्य ३/१४/१)

(५)   ‘ब्रह्मैवेदं विश्वमिदम्’ (मुण्डक२/२/११)

इसलिये श्रीमद्भागवतमें भगवान्‌ने  ब्रह्माजीसे कहा है‒

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्  यत्  सदसत् परम् ।

पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत योऽसम्यहम् ॥

(२/९/३२)

‘सृष्टिके पहले भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था । सृष्टिके उत्पन्न होनेके बाद जो कुछ भी यह दृश्यवर्ग है, वह मैं ही हूँ । जो सत्‌, असत्‌ और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ । सृष्टिके बाद भी मैं ही हूँ और इन सबका नाश हो जानेपर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ ।’

गीतामें भी भगवान्‌ने कहा है‒

(१)  अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥  (१०/२०)

‘सम्पूर्ण प्राणियोंके आदिमें भी मैं ही हूँ, मध्यमें भी मैं ही हूँ और अन्तमें भी मैं ही हूँ ।’

(२) सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन । (१०/३२)

‘सम्पूर्ण सृष्टियोंके आदिमें भी मैं ही हूँ, मध्यमें भी मैं ही हूँ और अन्तमें भी मैं ही हूँ ।’

(३)   ‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ (७/७)

‘मेरे सिवाय इस जगत्‌का दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है ।’

(४) ‘वासुदेवः सर्वम्’ (७/१९)

‘सब कुछ परमात्मा ही हैं ।’

(५) न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥

(१०/३९)

‘वह चर-अचर कोई प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना हो अर्थात्‌ चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ ।’

सन्तोंने भी अपना अनुभव बताते हुए कहा है‒

(१) तू तू करता तू भया,   मुझमें रही न हूँ ।

वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तू ॥

(२) सब जग ईश्वर-रूप है, भलो बुरो नहिं कोय ।

     जैसी जाकी भावना,   तैसो  ही  फल  होय ॥

(३) सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।

     मैं सेवक सचराचर   रूप   स्वामी भगवंत ॥

                                   (मानस, किष्किन्धा ३)

(४)  निज प्रभुमय देखहिं जगत्‌ केहि सन करहिं बिरोध ॥

(मानस, उत्तर ११२ ख)

(५) जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।

(मानस, बाल ७ ग)