भगवान् सम्पूर्ण सृष्टिके आदि बीज हैं‒ यच्चापि सर्वभूतानां
बीजं तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ (गीता १०/३९) ‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज
(मूल कारण) है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि वह चर-अचर कोई प्राणी नहीं है, जो मेरे
बिना हो अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ ।’ सांसारिक बीज तो वृक्षसे पैदा होता है और फिर वृक्षको पैदा
करके स्वयं नष्ट हो जाता है, पर भगवान् पैदा नहीं होते और अनन्त सृष्टियोंको पैदा
करके भी स्वयं ज्यों-के-त्यों रहते हैं । इसलिये भगवान्ने अपनेको ‘सनातन’ और
‘अव्यय’ बीज कहा है‒ बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । (गीता ७/१०) प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ (गीता ९/१८) आमके बगीचेमें आमका एक फल भी न हो तो भी वह बगीचा आमका ही
कहलाता है । कारण कि पहले भी आमके बीज थे, फिर उनसे वृक्ष उत्पन्न हुए और अन्तमें
उनमें आम ही निकलेंगे, इसलिये बीचमें भी वह आमका ही बगीचा कहलाता है । लौकिक बीजसे
तो एक ही प्रकारकी खेती होती है; जैसे‒गेहूँके बीजसे गेहूँ ही पैदा होता है,
बाजरेसे बाजरा ही पैदा होता है, ज्वारसे ज्वार ही पैदा होता है, मक्केसे मक्का ही
पैदा होता है, आमसे आम ही पैदा होता है, आदि-आदि । सबके बीज अलग-अलग होते हैं ।
परन्तु भगवान्रूपी बीज इतना विलक्षण है कि उस एक ही
बीजसे अनन्त भेदोंवाली सृष्टि पैदा हो जाती है‒ सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः । तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ (गीता १४/४) ‘हे कुन्तीनन्दन ! सम्पूर्ण योनियोंमें
प्राणियोंके जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं
बीज-स्थापन करनेवाला पिता हूँ ।’ सृष्टिसे पहले भी परमात्मा थे‒‘सदेव
सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग्य॰ ६/२/१) और अन्तमें भी परमात्मा ही रहेंगे‒ ‘शिष्यते
शेषसंज्ञः’ (श्रीमद्भा॰ १०/३/२५), फिर बीचमें दूसरा कहाँसे आया ? सोनेके गहनोंमें सोना दीखता है और गेहूँकी खेतीमें
गेहूँ नहीं दीखता‒इसका तात्पर्य दीखने या न
दीखनेमें नहीं है, प्रत्युत तत्त्वको एक बतानेमें है । सभी दृष्टान्तोंका तात्पर्य
है कि तत्त्व एक ही है, चाहे दीखे या न दीखे । भगवान् कहते हैं‒ अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ (गीता ९/१९) अमृत भी भगवान्का स्वरूप है, मृत्यु भी भगवान्का स्वरूप है । |