सत् भी भगवान्का स्वरूप है, असत् भी भगवान्का स्वरूप है
। सुन्दर पुष्प खिले हों, सुगन्ध आ रही हो तो वह भी भगवान्का स्वरूप है और मांस,
हड्डियाँ, मैला पड़ा हो, दुर्गन्ध आ रही हो तो वह भी भगवान्का स्वरूप है । भगवान्ने
राम, कृष्ण आदि रूप भी धारण किये और मत्स्य, कच्छप, वराह आदि रूप भी धारण किये ।
वे कोई भी रूप धारण करें, हैं तो भगवान् ही ! वे चाहे किसी भी रूपमें आयें, उनकी
मरजी है । वे जैसा रूप धारण करते हैं, वैसी ही लीला करते हैं । वराह (सूअर)-का रूप
धारण करके वे वराहकी तरह लीला करते हैं, मनुष्यका रूप धारण करके वे मनुष्यकी तरह
लीला करते हैं । नरसिंहरूपसे वे प्रह्लादजीको चाटते हैं ! भगवान् उत्तंक ऋषिसे कहते हैं‒ धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च । तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव ॥ (महाभारत, आश्व॰ ५४/१३-१४) ‘मैं धर्मकी रक्षा और स्थापनाके लिये तीनों
लोकोंमें बहुत-सी योनियोंमें अवतार धारण करके उन-उन रूपों और वेषोंद्वारा तदनुरूप
बर्ताव करता हूँ ।’ भगवान् सत्ययुगमें सत्ययुगकी लीला करते हैं, कलियुगमें
कलियुगकी लीला करते हैं । कोई पाप, अन्याय करता हुआ दीखे
तो समझना चाहिये कि भगवान् कलियुगकी लीला कर रहे हैं । वे कोई भी रूप धारण करके
कैसी ही लीला करें, हमारी दृष्टि उनको छोड़कर कहीं जानी ही नहीं चाहिये । भगवान्
कहते हैं‒ यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ (गीता ६/३०) ‘जो सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको
देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ।’
जैसे सब जगह बर्फ-ही-बर्फ पड़ी हो तो बर्फ कैसे छिपेगी ?
बर्फके पीछे बर्फ रखनेपर भी बर्फ ही दीखेगी ! ऐसे ही जब
सब रूपोंमें भगवान् ही हों तो भगवान् कैसे छिपेंगे ? कहाँ छिपेंगे ? किसके पीछे
छिपेंगे ? तात्पर्य है कि एक परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण हैं । उस
परमात्मामें न मैं है, न तू है, न यह है, न वह है । न भूत है, न भविष्य है, न
वर्तमान है । न सर्ग-महासर्ग है, न प्रलय-महाप्रलय है । न देवता है, न मनुष्य है,
न राक्षस है । न पशु है, न पक्षी है । न प्रेत है, न पिशाच है । न जड़ है, न चेतन
है । न स्थावर है, न जंगम है । एक परमात्माके सिवाय कुछ भी
नहीं है । वे एक ही अनेक रूपोंमें बने हुए हैं । वे एक ही अनन्त रूपोंमें भासित हो
रहे हैं । |