(४) सब कुछ भगवान् ही हैं‒यह बात हमें दीखे चाहे न
दीखे, हमारे जाननेमें आये चाहे न आये, हमारे अनुभवमें आये चाहे न आये, पर हम
दृढ़तासे इस बातको स्वीकार कर लें कि वास्तवमें बात यही सच्ची है । कमी है तो हमारे माननेमें कमी है, वास्तविकतामें कमी नहीं
है । सब कुछ भगवान् ही हैं‒ऐसा अनुभव करनेके लिये क्रिया और पदार्थकी आवश्यकता
नहीं है, प्रत्युत केवल भावकी आवश्यकता है । हमें केवल अपनी भावना बदलनी है । जब साधककी अन्तर्वृत्ति हो, तब एक भगवान्के सिवाय कुछ नहीं है और जब साधककी बाह्यवृति हो, तब जो कुछ दीखे,
वह भगवान्की ही लीला है ! भगवान्की अपरा प्रकृतिके सम्मुख होनेसे ही हमारी भगवान्से
विमुखता हो गयी है । अगर हम अपरासे विमुख हो जायँ और जिसकी अपरा प्रकृति है, उसके
(भगवान्के) सम्मुख हो जायँ तो वास्तविकताका अनुभव हो जायगा‒‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’ (गीता ७/१४) । भगवान् कहते हैं‒ ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये । मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं
तेषु ते मयि ॥ (गीता ७/१२) ‘जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी
राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझमें ही रहते
हैं‒ऐसा समझो । परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं ।’ ‘न त्वहं तेषु ते मयि’ कहनेका तात्पर्य है कि तुम गुणोंमें उलझो मत । भगवान् तो सबमें ही हैं । वे गुणोंमें भी हैं । पर गुणोंमें उलझनेसे हम उनसे दूर हो जाते हैं । यदि हम भगवान्को सत्ता और महत्ता न देकर गुणोंको सत्ता और महत्ता देंगे तो हम जन्म-मरणमें चले जायँगे‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । जैसे, गेहूँके खेतमें गेहूँ ही मुख्य होता है, पत्ती-डंठल नहीं । गेहूँके पौधेमें जड़ तामस है, डंठल राजस है, सिट्टा सात्त्विक है और गेहूँ (दाना) गुणातीत है । किसानका उद्देश्य केवल गेहूँको प्राप्त करनेका ही होता है । गेहूँको प्राप्त करनेके लिये ही वह सारी मेहनत करता है, खेतीमें जल-खाद आदि डालता है । गेहूँ प्राप्त करनेके बाद उसका पत्ती-डंठलसे कोई मतलब नहीं रहता; क्योंकि उसकी दृष्टिमें पत्ती-डंठलका कोई महत्त्व नहीं है । इसी तरह साधकका उद्देश्य भी केवल भगवान् ही होता है, सात्त्विक-राजस-तामस तीनों गुणोंका नहीं । जैसे गेहूँसे पैदा होनेपर भी पत्ती-डंठलसे किसानका कोई प्रयोजन नहीं होता, ऐसे ही भगवान्से उत्पन्न होनेपर भी सात्त्विक-राजस-तामस भावोंसे साधकका कोई प्रयोजन नहीं होता । |