।। श्रीहरिः ।।

                                                                                           


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७८ मंगलवार

                 तू-ही-तू

जैसे बालक मिट्टीका खिलौना चाहता है तो पिताजी रुपये खर्च करके भी उसके लिये मिट्टीका खिलौना लाकर देते हैं । ऐसे ही हम संसारको चाहते हैं तो भगवान्‌ संसाररूपमें हमारे सामने आ जाते हैं । हम शरीर बनते हैं तो भगवान्‌ विश्व बन जाते हैं । शरीर बननेके बाद फिर विश्वसे भिन्न कुछ भी जाननेमें नहीं आता‒यह नियम है ।

सब कुछ भगवान्‌ हैं‒इसका चिन्तन नहीं करना है, प्रत्युत इसको स्वयंसे स्वीकार करना है । स्वीकार करते ही हमारी दृष्टि बदल जायगी । दृष्टिमें ही सृष्टि है । हमारी दृष्टि बदलेगी तो सारी सृष्टि बदल जायगी ! इसलिये अपनी दृष्टि ऐसी बनाओ कि सब रूपोंमें भगवान्‌ ही दीखने लग जायँ । यही सच्ची आस्तिकता है ।

भक्तराज ध्रुव कहते हैं‒

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो  बुद्धिरेव च ।

भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूपं नतोऽस्मि तम् ॥

(विष्णुपुराण १/१२/५१)

‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति‒ये सब जिनके रूप हैं, उन भगवान्‌को मैं नमस्कार करता हूँ ।’

अगर हमारे भीतर राग-द्वेष होते हैं तो हमने ‘सब कुछ भगवान्‌ हैं’‒यह बुद्धिसे सीखा है, स्वयंसे स्वीकार नहीं किया है । बुद्धिसे सीखनेपर कल्याण नहीं होता, प्रत्युत स्वयंसे स्वीकार करनेपर कल्याण होता है । जब सब कुछ भगवान्‌ ही हैं तो फिर राग-द्वेष कौन करे और किससे करे ?

निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥

(मानस, उत्तर ११२ ख)

(५)

शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जो भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव, क्रिया, पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं, वे सब भगवान्‌ ही हैं । मनकी स्फुरणामात्र भगवान्‌ ही हैं । संसारमें अच्छा-बुरा, शुद्ध-अशुद्ध, शत्रु-मित्र, दुष्ट-सज्जन, पापात्मा-पुण्यात्मा आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, कहने, सोचने, समझने आदिमें आता है, वह सब-का-सब केवल भगवान्‌ ही हैं । शरीर-शरीरी, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, अपरा-परा, क्षर-अक्षर आदि सब केवल भगवान्‌ ही हैं तो फिर उसमें ‘मैं’ कहाँसे आये ? ‘मैं’ है ही नहीं, केवल तू-ही-तू है‒

तू तू करता तू भया,   मुझमें  रही न हूँ ।

वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तू ॥

अब भगवान्‌की प्राप्तिमें देरी किस बातकी है ? भगवत्प्राप्ति तत्काल होनेवाली वस्तु है । मान लो कि हम एक नदीको देख रहे हैं । किसी जानकार व्यक्तिने हमारेसे कहा कि यह नदी गंगाजी हैं । यह सुनते ही हमारी भावना बदल गयी, दृष्टि बदल गयी । इसमें देरी क्या लगी ? परिश्रम (अभ्यास) क्या करना पड़ा ? किस क्रिया और पदार्थकी आवश्यकता पड़ी ?