सब कुछ भगवान् ही हैं‒इस वास्तविक बातको
स्वीकार करनेके लिये न कोई ग्रन्थ पढ़ना है, न कोई ध्यान करना है, न कोई चिन्तन
करना है, न श्रवण-मनन-निदिध्यासन करना है, न आँख मीचनी है, न कान मूँदने हैं, न
नाक दबानी है, न जंगलमें जाना है, न गुफामें जाना है, न हिमालयमें जाना है ! अपनी सत्ताको भी अलग न रखकर भगवान्में मिला देना है ।
‘मैं’ और ‘मेरा’ को छोड़कर ‘तू’ और ‘तेरा’ को स्वीकार करना है । फिर ‘तेरा’ भी न
रहे, प्रत्युत तू-ही-तू रह जाय । ‘मैं’ की जगह भी केवल भगवान् ही रह जायँ ! यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु सब समयमें मौजूद
होती है, उसकी प्राप्तिके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं होती और जो वस्तु सब जगह
मौजूद होती है, उसकी प्राप्ति किसी क्रिया तथा पदार्थसे नहीं होती । कहीं जानेसे जो परमात्मा मिलेंगे, वे ही परमात्मा जहाँ हम
हैं, वहाँ पूरे-के-पूरे हैं । कहीं जानेकी, कुछ बदलनेकी जरूरत नहीं है । केवल मन
बदलनेकी जरूरत है । उनकी प्राप्तिकी सच्ची चाहना होनी चाहिये । उनकी प्राप्ति केवल
इच्छामात्रसे होती है । जो केवल परमात्माकी प्राप्ति चाहता है, उसको तत्काल
प्राप्ति होती है । देरी उसको लगती है, जिसको इच्छाकी कमीके कारण देरी सह्य है । जो वस्तु दूर हो, उसकी प्राप्तिके
लिये मार्ग होता है । जो
वस्तु सर्वव्यापक हो, सब जगह परिपूर्ण हो, उसकी प्राप्तिके लिये मार्ग नहीं होता ।
उसकी प्राप्ति केवल चाहनासे होती है । चाहनामात्रसे केवल
परमात्मा ही मिलते हैं, और कोई वस्तु नहीं मिलती । परमात्मा अद्वितीय हैं
तो उनकी चाहना भी अद्वितीय होनी चाहिये । संसारकी प्राप्ति चाहनेमात्रसे नहीं होती
। संसारकी प्राप्ति ‘करने’
से होती है, परमात्माकी प्राप्ति ‘न करने’ से होती है । मूलमें साधकके भीतर परमात्माकी लालसा होनी चाहिये । अगर भीतरसे संसार अच्छा लगता है, संसारकी लालसा है तो परमात्मप्राप्ति नहीं हो सकती । जैसे जिसके भीतर प्यास होती है, उसीको जल दीखता है, ऐसे ही जिसके भीतर संसारकी प्यास (लालसा) है, उसको संसार दीखता है और जिसके भीतर परमात्माकी प्यास है, उसको परमात्मा दीखते हैं । प्यास न हो तो वस्तु सामने रहते हुए भी नहीं दीखती । परमात्माकी प्यास हो तो जगत् लुप्त हो जाता है और जगत्की प्यास हो तो परमात्मा लुप्त हो जाते हैं । जिसके भीतर जगत्की प्यास है, वह जगत्का निर्माण कर लेता है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७/५) और जिसके भीतर परमात्माकी प्यास है, वह परमात्माकी खोज कर लेता है‒‘ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्’ (गीता १५/४) । जगत्की प्यास होनेसे जगत् न होते हुए भी मृगमरीचिकाकी तरह दीखने लग जाता है और परमात्माकी प्यास होनेसे परमात्मा न दीखनेपर भी दीखने लग जाता है । परमात्माकी प्यास जाग्रत् होनेपर साधकको भूतकालका चिन्तन नहीं होता, भविष्यकी आशा नहीं रहती और वर्तमानमें उसको प्राप्त किये बिना चैन नहीं पड़ता । |