(६) अपरा, परा और परमात्मा‒इन तीनोंमें अपरा और परा तो जाननेके
विषय है, पर परमात्मा जाननेका विषय नहीं है, पर परमात्मा माननेका विषय हैं । उनको
माना ही जा सकता है, जाना नहीं जा सकता । रचना अपने रचयिताको कैसे जान सकती है ?
कार्य अपने कारणको कैसे जान सकता है ? इसलिये गीतामें भगवान्ने कहा है‒ वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि
चार्जुन । भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ (७/२६) ‘हे अर्जुन ! जो प्राणी भूतकालमें हो चुके
हैं तथा जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे, उन सब प्राणियोंको तो मैं जानता
हूँ, पर मुझे कोई भी नहीं जानता ।’ न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥ (१०/२) ‘मेरे प्रकट होनेको न देवता जानते हैं और न
महर्षि; क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओं और
महर्षियोंका आदि हूँ ।’ जैसे अपने माता-पिताको हम जान नहीं सकते, प्रत्युत मान ही
सकते हैं; क्योंकि जन्म लेते समय हमने उनको देखा ही नहीं; देखना सम्भव ही नहीं ।
ऐसे ही परमात्माको भी हम जान नहीं सकते, प्रत्युत मान ही सकते हैं । माताकी
अपेक्षा भी पिताको जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि मातासे जन्म लेते समय तो हमारा
शरीर बन चुका था, पर पितासे जन्म लेते समय हमारी (शरीरकी) सत्ता ही नहीं थी ! भगवान्
सम्पूर्ण जगत्के पिता हैं‒‘अहं बीजप्रदः पिता’ (गीता
१४/१४), ‘पिताहमस्य जगतः’ (गीता ९/१७), पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता ११/४३), ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) । इसलिये परमात्माको माना ही जा सकता है । उनको जानना सर्वथा
असम्भव है । जैसे, माता-पिताको माने बिना हम रह सकते ही नहीं । अगर हम अपनी
(शरीरकी) सत्ता मानते हैं तो माता-पिताकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । ऐसे ही
परमात्माको माने बिना हम रह सकते ही नहीं । अगर हम अपनी सत्ता (होनापन) मानते हैं
तो परमात्माकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । कारणके बिना कार्य कहाँसे आये ? जैसे ‘हम
नहीं है’‒इस तरह अपने होनेपनका कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता, ऐसे ही ‘परमात्मा
नहीं हैं’‒इस तरह परमात्माके होनेपनका भी कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता ।
सब कुछ भगवान् ही हैं‒यह मान ही सकते हैं, जान
नहीं सकते; क्योंकि यह समझके अन्तर्गत नहीं आता, प्रत्युत समझ (बुद्धि) इसके
अन्तर्गत आती है । |