।। श्रीहरिः ।।

                                                                                              


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ अमावस्या, वि.सं.२०७८ शुक्रवार

                 तू-ही-तू

(७)

सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒इसका अनुभव करनेके तीन चरण हैं, जो क्रमशः इस प्रकार हैं‒

१.   सब कुछ भगवान्‌का ही है ।

२.   सब कुछ भगवान्‌ ही हैं ।

३.  भगवान्‌के सिवाय कभी कुछ भी हुआ ही नहीं ।

देखने-सुननेमें जो कुछ आता है, वह सब मिलने और बिछुड़नेवाला है । जो मिला है, वह बिछुड़ जायगा‒इसमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है । अनन्त ब्रह्माण्डोंमें तिल-जितनी कोई वस्तु भी हमारी नहीं है । जो कुछ देखने-सुननेमें आता है, वह सब अपरा प्रकृति है, जो भगवान्‌की है । भगवान्‌ने अपरा प्रकृतिको भी ‘मेरी प्रकृति’ कहा है‒‘अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा’ (गीता ७/४) और परा प्रकृतिको भी ‘मेरी प्रकृति’ कहा है‒‘प्रकृतिं विद्धि मे पराम्’ (गीता ७/५) । फिर हमारी क्या वस्तु हुई ? सब कुछ भगवान्‌का ही हुआ ! अतः जो कुछ दीखता है, वह हमारा नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌का है‒यह दृढ़तासे स्वीकार कर लें तो हमारा साधन शुरू हो जायगा । जबतक हम मिले हुएको अपना मानते रहेंगे, तबतक साधन शुरू नहीं होगा । मिले हुएको अपना मानते रहनेसे न तो विवेक दृढ़ होता है और न विश्वास ही दृढ़ होता है । इसलिये सन्तोंने, भक्तोंने कभी संसारको अपना नहीं माना, प्रत्युत केवल भगवान्‌को ही अपना माना‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’ । ‘मैं’ भी हमारा नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌का ही है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि सब भगवान्‌के ही हैं ।

मेरा कुछ नहीं है, सब कुछ भगवान्‌का ही है‒इस सत्यकी स्वीकृति होते ही ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒यह सत्य प्रकट हो जायगा । कारण कि यह जगत्‌ केवल जीवकी कल्पना है । जगत्‌ न तो महात्माकी दृष्टिमें है और न परमात्माकी दृष्टिमें हैं, प्रत्युत जीवात्माकी दृष्टिमें है । महात्माकी दृष्टिमें सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७/१९) । भगवान्‌की दृष्टिमें सत्‌-असत्‌ सब कुछ वे ही हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९) । परन्तु जीवने अपने राग-द्वेषके कारण जगत्‌को अपनी बुद्धिमें धारण कर रखा है‒‘ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७/५) । वास्तवमें जगत्‌का नामोनिशान भी नहीं है । सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिमें केवल भगवान्‌-ही-भगवान्‌ परिपूर्ण हैं । अगर यह बात हमारी समझमें नहीं आती तो हमारी समझकी कमी है, तत्त्वमें कमी नहीं है । भले ही हमारी समझमें न आये, पर सच्ची बात सच्ची ही रहेगी, झूठी कैसे हो जायगी ? साधक कुछ भी करे, अन्तमें उसे सच्ची बातको स्वीकार करना ही पड़ेगा ।

‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव होनेके बाद फिर ‘सर्वम्’ भी नहीं रहता, प्रत्युत केवल ‘वासुदेवः’ रह जाता है । इसीको श्रीमद्भागवतमें ‘आत्यन्तिक प्रलय’ कहा गया है (१२/४/२३-३४) और इसीको गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने ‘परम विश्राम’ कहा है‒‘पायो परम बिश्रामु’ (मानस, उत्तर १३०/३) । जैसे, जबतक गेहूँकी खेती रहती है, तबतक पत्ती-डंठल दीखते हैं । अन्तमें पत्ती-डंठल नहीं रहते, केवल गेहूँ रह जाता है । तात्पर्य यह हुआ कि केवल वासुदेव-ही-वासुदेव विद्यमान है । अन्य कुछ है ही नहीं, कभी हुआ ही नहीं, कभी होगा ही नहीं, कभी हो सकता ही नहीं । इससे सिद्ध हुआ कि एक परमात्माके सिवाय कोई चीज कभी पैदा हुई ही नहीं ! इस स्थितिका वर्णन नहीं हो सकता; क्योंकि वर्णन करनेवाला कोई (व्यक्ति) रहता ही नहीं !