।। श्रीहरिः ।।

                                                                                               


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ अमावस्या, वि.सं.२०७८ शनिवार

                 तू-ही-तू

भगवान्‌ कहते हैं‒

सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययाऽऽत्ममनीषया ।

परिपश्यन्नुपरमेत्    सर्वतो     मुक्तसंशयः ॥

(श्रीमद्भा ११/२९/१८)

‘जब सबमें परमात्मबुद्धि की जाती है, तब सब कुछ परमात्मा ही हैं‒ऐसा दीखने लगता है । फिर इस परमात्मदृष्टिसे भी उपराम होनेपर सम्पूर्ण संशय स्वतः निवृत्त हो जाते हैं ।’

‘उपरमेत्’ पदका तात्पर्य है कि साधक ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒इस वृत्तिसे भी उपराम हो जाता है, इस वृत्तिको भी छोड़ देता है; क्योंकि उसकी दृष्टिमें ‘सब कुछ’ रहता ही नहीं । इसलिये वृत्ति छूटनेपर एक भगवान्‌ ही रह जाते हैं । तात्पर्य है कि भक्त सर्वत्र परिपूर्ण भगवान्‌के शरणागत होकर अपने-आपको भी भगवान्‌में लीन कर देता है । फिर शरणागत नहीं रहता, केवल शरण्य रह जाते हैं । ‘मैं’ नहीं रहता, केवल भगवान्‌ रह जाते हैं । यही असली शरणागति है । ऐसी शरणागतिके बाद फिर परमप्रेमकी प्राप्ति होती है‒‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ (गीता १८/५४) । भगवान्‌ अपनी इच्छासे प्रेमलीलाके लिये एकसे दो हो जाते हैं‒

द्वैतं   मोहाय   बोधात्प्राग्जाते    बोधे    मनीषया ।

भक्त्यर्थं कल्पितं (स्वीकृतं) द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम् ॥

(बोधसार, भक्ति ४२)

‘तत्त्वबोधसे पहलेका द्वैत तो मोहमें डालता है, पर बोध हो जानेपर भक्तिके लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर होता है ।’

भगवान्‌की इच्छासे होनेवाला यह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है । इसलिये कभी भक्त और भगवान्‌ एक हो जाते हैं और कभी दो हो जाते हैं । प्रेममें यह मिलना और अलग होना (मिलन और विरह) भगवान्‌की इच्छासे ही होता है, भक्तकी इच्छासे नहीं । इस प्रेमकी माँग मुक्त महापुरुषोंमें भी देखी जाती है । कारण कि योग और बोधकी प्राप्ति होनेपर तो सूक्ष्म अहम्‌ रहता है[*], पर प्रेमकी प्राप्ति होनेपर इस सूक्ष्म अहम्‌‌का भी सर्वथा अभाव हो जाता है । तभी कहा है‒

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।

अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥

(मानस, उत्तर ४९/३)

उपसंहार

यह जगत्‌ भगवान्‌का आदि अवतार है‒‘आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य’ (श्रीमद्भा २/६/४१) । एक परमात्मा ही अनेकरूप बन जाते हैं और फिर अनेकरूपका त्याग करके एकरूप हो जाते हैं । अनेकरूपसे होनेपर भी वे एक ही रहते हैं । वे एक रहें या अनेक हो जायँ, यह उनकी मरजी है, उनकी लीला है । एक सोनेके सैकड़ों गहने बन जायँ और फिर गहने पुनः सोना हो जायँ अथवा एक खाँड़के सैकड़ों खिलौने बन जायँ और फिर खिलौने पुनः खाँड़ हो जायँ, फर्क क्या पड़ा ? ऐसे ही भगवान्‌ कुछ भी बन जायँ, फर्क क्या पड़ा ? तत्व एक ही है और एक ही रहेगा । उस एक तत्त्वके सिवाय कभी कुछ हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता ही नहीं । एकमात्र भगवान्‌ ही थे, भगवान्‌ ही हैं और भगवान्‌ ही रहेंगे । वे एक ही भगवान् प्रेमी और प्रेमास्पदका रूप धारण करके प्रेमकी लीला करते हैं । उस प्रतिक्षण वर्धमान परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘तू-ही-तू’ पुस्तकसे



[*] यह सूक्ष्म अहम्‌ जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर मतभेद पैदा करनेवाला होता है । इस सूक्ष्म अहम्‌‌के कारण ही आचार्योंमें तथा उनके दर्शनोंमें मतभेद रहता है ।