।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७८ रविवार

      कल्याणके तीन सुगम मार्ग

श्रीभगवान्‌ कहते हैं

योगास्त्रयो  मया  प्रोक्ता   नृणां  श्रेयोविधित्सया ।

ज्ञानं कर्म च भक्तिश्‍च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥

(श्रीमद्भा ११/२०/६)

अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने तीन योग बताये हैंज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । इन तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग नहीं है ।

प्रत्येक मनुष्य वास्तवमें साधक है । कारण कि चौरासी लाख योनियोंमें भटकते हुए जीवको यह मनुष्यशरीर केवल अपना कल्याण करनेके लिये ही मिला है । किसी आकृतिविशेषका नाम मनुष्य नहीं है, प्रत्युत मनुष्य वह है, जिसमें सत्‌ और असत्‌ तथा कर्तव्य और अकर्तव्यका विवेक हो । यह विवेक अनादि और भगवत्प्राप्त है । इस विवेकको महत्त्व देकर मनुष्य ज्ञानयोगी, कर्मयोगी अथवा भक्तियोगी बन सकता है और सुगमतापूर्वक अपना कल्याण कर सकता है । मिले हुए और बिछुड़नेवाले शरीरका नाम मनुष्य नहीं है । शरीर तो केवल कर्म-सामग्री है, जिसका उपयोग केवल दूसरोंकी सेवा करनेमें ही है । परन्तु जब मनुष्य मिले हुए और बिछुड़नेवाले शरीर, वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदिको अपना और अपने लिये मान लेता है, तब वह कोई-सा भी योगी नहीं होता, प्रत्युत भोगी होता है । भोगी व्यक्ति स्वयं भी दुःख पाता है और दूसरोंको भी दुःख देता है; क्योंकि दुःखी व्यक्ति ही दूसरोंको दुःख देता हैयह सिद्धान्त है ।

मनुष्यशरीर अपना कल्याण करनेके लिये ही मिला है, इसलिये किसी भी मनुष्यको अपने कल्याणसे निराश नहीं होना चाहिये । मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्तिका जन्मसिद्ध अधिकार है । साधक होनेके नाते मनुष्यमात्र अपने साध्यको प्राप्त करनेमें स्वतन्त्र एवं समर्थ है । सबसे पहले इस बातकी आवश्यकता है कि मनुष्य अपने उद्देश्यको पहचानकर यह स्वीकार करे कि मैं संसारी नहीं हूँ, प्रत्युत साधक हूँ । मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं शूद्र हूँ, मैं अन्त्यज हूँ, मैं ब्रह्मचारी हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं वानप्रस्थ हूँ, मैं संन्यासी हूँ आदि मान्यताएँ सांसारिक व्यवहार (मर्यादा)-के लिये तो ठीक हैं, पर परमात्मप्राप्तिमें ये बाधक हैं । ये मान्यताएँ शरीरको लेकर हैं । परमात्मप्राप्ति शरीरको नहीं होती, प्रत्युत साधकको होती है । साधक अशरीरी होता है । जब मनुष्य अपनेको साधक स्वीकार कर लेता है, तब उसके द्वारा असाधनका त्याग स्वतः होने लगता है । मिले हुए और बिछुड़नेवाले शरीर, वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदिको अपना और अपने लिये मानना ही असाधन है । इस असाधनको मिटाना प्रत्येक साधकके लिये आवश्यक है ।

जगत्‌, जीव और परमात्मा इन तीनोंके सिवाय अन्य कोई नहीं है । गीतामें इन तीनोंका विभिन्न नामोंसे वर्णन हुआ है; जैसेपरा, अपरा और भगवान्‌; क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम आदि । इन तीनोंमें जगत्‌ और जीवये दोनों विचारके विषय होनेसे लौकिक[*] हैं । परन्तु परमात्मा विचारका विषय न होनेसे अलौकिक[†] हैं । इन तीनोंमें जीवको लेकर ज्ञानयोग, जगत्‌को लेकर कर्मयोग और परमात्माको लेकर भक्तियोग चलता है । इसलिये ज्ञानयोग तथा कर्मयोगये दोनों लौकिक साधन[‡] हैं और भक्तियोग अलौकिक साधनहै । लौकिक साधनसे मुक्ति होती है और अलौकिक साधनसे परमप्रेमकी प्राप्ति होती है ।



[*] द्वाविमौ पुरुषौ लोके   क्षरश्चाक्षर एव च ।

    क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ (गीता १५/१६)

[†] उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः  परमात्मेत्युदाहृतः ।

  यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ (गीता १५/१७)

[‡] लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।

    ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां    कर्मयोगेन योगिनाम् ॥ (गीता ३/३)