मनुष्यमात्रके भीतर बीजरूपसे एक तो मुक्ति
(अखण्ड आनन्द)-की माँग रहती है, दूसरी दुःखनिवृतिकी माँग रहती है और तीसरी
परमप्रेमकी माँग रहती है । मुक्तिकी माँग (स्वयंकी भूख) ज्ञानयोगसे, दुःखनिवृत्तिकी माँग कर्मयोगसे और
परमप्रेमकी माँग भक्तियोगसे पूरी होती है । अगर साधकमें
अपने साधनका आग्रह, पक्षपात न हो तो एक माँगकी पूर्तिसे तीनों माँगें पूर्ण हो
जाती हैं । ज्ञानयोगका मार्ग मनुष्यमात्रको ‘मैं हूँ’‒इस रूपमें अपनी एक सत्ताका अनुभव
होता है । इस सत्तामें अहम् (‘मैं’) मिला हुआ होनेसे ही ‘हूँ’ के रूपमें अपनी
एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है । यदि अहम् न रहे तो ‘है’ के रूपमें सर्वदेशीय
सत्ता ही अनुभवमें आयेगी । वह सर्वदेशीय सत्ता ही
मनुष्यका वास्तविक स्वरूप है । उस सत्तामें अहम् (जड़ता) नहीं है । जब
मनुष्य अहम्को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता (‘है’) को स्वीकार
करता है, तब वह मुक्त हो जाता है । संसारका स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ । क्रिया और पदार्थ‒दोनों ही आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं ।
प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है । प्रत्येक पदार्थकी उत्पत्ति और विनाश
होता है । मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है । जो मिली है और बिछुड़ जायगी, उसका उपयोग केवल संसारकी सेवामें
ही हो सकता है । अपने लिये उसका कोई उपयोग नहीं है । कारण कि मिली हुई और
बिछुड़नेवाली वस्तु अपनी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है । जो वस्तु अपनी नहीं होती, वह
अपने लिये भी नहीं होती । अपनी वस्तु वह होती है, जिसपर
हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिये वस्तु वह होती है, जिसको पानेके बाद फिर कुछ भी
पाना शेष नहीं रहे । परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि मिली हुई
वस्तुओंपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता । हम अपनी इच्छाके अनुसार उनको
प्राप्त नहीं कर सकते, उनको बना नहीं सकते, उनमें परिवर्तन नहीं कर सकते । उनकी
प्राप्तिके बाद भी ‘और मिले, और मिले’ यह कामना बनी रहती है अर्थात् अभाव बना
रहता है । इस अभावकी कभी पूर्ति नहीं होती । इसलिये
साधकको चाहिये कि वह इस सत्यको स्वीकार करे कि मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तु मेरी
और मेरे लिये नहीं है ।
मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुको अपनी और अपने लिये न
माननेसे मनुष्य निर्मम हो जाता है । निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली ही वस्तुओंका
सदुपयोग सुगमतासे होने लगता है । कारण कि निर्मम हुए
बिना प्राप्त वस्तुओंका सदुपयोग नहीं हो सकता । ममतावाले मनुष्यके द्वारा प्राप्त
वस्तुओंका दुरुपयोग ही होता है । भोग और संग्रह करना ही वस्तुओंका दुरुपयोग है और
उनको दूसरोंकी सेवामें लगाना ही उनका सदुपयोग है । प्राप्त वस्तुओंके दुरुपयोगसे समाजमें संघर्ष पैदा होता है
और सदुपयोगसे समाजमें शान्तिकी स्थापना होती है । |