।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                 


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७८ सोमवार

      कल्याणके तीन सुगम मार्ग

मनुष्यमात्रके भीतर बीजरूपसे एक तो मुक्ति (अखण्ड आनन्द)-की माँग रहती है, दूसरी दुःखनिवृतिकी माँग रहती है और तीसरी परमप्रेमकी माँग रहती है । मुक्तिकी माँग (स्वयंकी भूख) ज्ञानयोगसे, दुःखनिवृत्तिकी माँग कर्मयोगसे और परमप्रेमकी माँग भक्तियोगसे पूरी होती है । अगर साधकमें अपने साधनका आग्रह, पक्षपात न हो तो एक माँगकी पूर्तिसे तीनों माँगें पूर्ण हो जाती हैं ।

ज्ञानयोगका मार्ग

मनुष्यमात्रको ‘मैं हूँ’‒इस रूपमें अपनी एक सत्ताका अनुभव होता है । इस सत्तामें अहम्‌ (‘मैं’) मिला हुआ होनेसे ही ‘हूँ’ के रूपमें अपनी एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है । यदि अहम्‌ न रहे तो ‘है’ के रूपमें सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभवमें आयेगी । वह सर्वदेशीय सत्ता ही मनुष्यका वास्तविक स्वरूप है । उस सत्तामें अहम्‌ (जड़ता) नहीं है । जब मनुष्य अहम्‌को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता (‘है’) को स्वीकार करता है, तब वह मुक्त हो जाता है ।

संसारका स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ । क्रिया और पदार्थ‒दोनों ही आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं । प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है । प्रत्येक पदार्थकी उत्पत्ति और विनाश होता है । मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है । जो मिली है और बिछुड़ जायगी, उसका उपयोग केवल संसारकी सेवामें ही हो सकता है । अपने लिये उसका कोई उपयोग नहीं है । कारण कि मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तु अपनी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है । जो वस्तु अपनी नहीं होती, वह अपने लिये भी नहीं होती । अपनी वस्तु वह होती है, जिसपर हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिये वस्तु वह होती है, जिसको पानेके बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहे । परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि मिली हुई वस्तुओंपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता । हम अपनी इच्छाके अनुसार उनको प्राप्त नहीं कर सकते, उनको बना नहीं सकते, उनमें परिवर्तन नहीं कर सकते । उनकी प्राप्तिके बाद भी ‘और मिले, और मिले’ यह कामना बनी रहती है अर्थात्‌ अभाव बना रहता है । इस अभावकी कभी पूर्ति नहीं होती । इसलिये साधकको चाहिये कि वह इस सत्यको स्वीकार करे कि मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है ।

मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुको अपनी और अपने लिये न माननेसे मनुष्य निर्मम हो जाता है । निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली ही वस्तुओंका सदुपयोग सुगमतासे होने लगता है । कारण कि निर्मम हुए बिना प्राप्त वस्तुओंका सदुपयोग नहीं हो सकता । ममतावाले मनुष्यके द्वारा प्राप्त वस्तुओंका दुरुपयोग ही होता है । भोग और संग्रह करना ही वस्तुओंका दुरुपयोग है और उनको दूसरोंकी सेवामें लगाना ही उनका सदुपयोग है । प्राप्त वस्तुओंके दुरुपयोगसे समाजमें संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोगसे समाजमें शान्तिकी स्थापना होती है ।