मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुओंको अपना और अपने लिये मानना
मनुष्यकी भूल है । जब स्वयं चेतन तथा अविनाशी है तो फिर जड़ तथा नाशवान् वस्तु
अपनी और अपने लिये कैसे हुई ? यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्यके
द्वारा उत्पन्न की हुई (कृत्रिम) है । अपने विवेकको महत्त्व न देनेसे यह भूल
उत्पन्न होती है । इस एक भूलसे फिर अनेक तरहकी भूलें उत्पन्न होती हैं । इसलिये इस
मूल भूलको मिटाना अत्यन्त आवश्यक है और इसको मिटानेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है ।
इसको मिटानेके लिये भगवान्ने मनुष्यको विवेक दिया है । जब मनुष्य अपने विवेकको
महत्त्व देकर इस भूलको मिटा देता है, तब वह निर्मम हो जाता है । निर्मम होना प्रत्येक साधकके लिये बहुत आवश्यक है; क्योंकि
ममताको मिटाये बिना साधककी उन्नति नहीं हो सकती । इतना ही नहीं, जिसमें ममता की
जाती है, वह वस्तु भी अशुद्ध हो जाती है और उसकी उन्नतिमें भी बाधा लग जाती है । ममतासे मनुष्यमें अनेक दोषोंकी उत्पत्ति होती है । कुछ लोगोंको यह शंका होती है कि ममताके
बिना हमारा शरीर कैसे चलेगा ? हम परिवार अथवा समाजकी सेवा कैसे करेंगे ? परन्तु
वास्तवमें ममताके कारण शरीर, समाज, परिवार आदिकी सेवामें बाधा ही लगती है । निर्मम
मनुष्यका शरीर-निर्वाह बहुत बढ़िया रीतिसे होता है । निर्मम मनुष्यके द्वारा ही परिवार, समाज
आदिकी वास्तविक सेवा होती है । जिसकी अपने शरीरमें ममता है, वह परिवारकी
सेवा नहीं कर सकता । जिसकी अपने परिवारमें ममता है, वह समाजकी सेवा नहीं कर सकता ।
जिसकी अपने समाजमें ममता है, वह देशकी सेवा नहीं कर सकता । जिसकी अपने देशमे ममता
है, वह दुनियाकी सेवा नहीं कर सकता । तात्पर्य है कि ममताके कारण मनुष्यका भाव
संकुचित, एकदेशीय हो जाता है । वह सेवासे विमुख होकर स्वार्थमें बँध जाता है ।
इसलिये साधकमात्रके लिये ममताका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है । जब साधकमें ममताका
त्याग करनेकी तीव्र अभिलाषा जाग्रत् हो जाती है, तब ममताका त्याग करना बड़ा सुगम
हो जाता है । कारण कि जब साधक सच्चे हृदयसे संसारसे विमुख होकर परमात्माकी ओर चलना
चाहता है, तब सम्पूर्ण संसार तथा स्वयं परमात्मा भी उसकी सहायता करनेके लिये तत्पर
हो जाते हैं । इसलिये साधकको कभी भी अपने उद्देश्यकी
पूर्तिसे निराश नहीं होना चाहिये । वह कम-से-कम आयुमें तथा कम-से-कम सामर्थ्यमें भी अपने
उद्देश्यकी पूर्ति कर सकता है । कारण कि अपने उद्देश्यकी पूर्तिके लिये ही भगवान्ने
अपनी अहैतुकी कृपासे उसको मानवशरीर दिया है‒ कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु
हेतु सनेही ॥ (मानस, उत्तर॰ ४४/३) ममताके कारण ही कामनाओंकी उत्पत्ति होती है । जैसे, शरीरमें ममता होगी तो शरीरकी आवश्यकता हमारी आवश्यकता हो जायगी अर्थात् अन्न, जल, वस्त्र, मकान आदिकी अनेक कामनाएँ उत्पन्न हो जायँगी । ममताका त्याग होते ही साधकमें कामना-त्यागकी सामर्थ्य आ जाती है । कारण कि शरीर और संसार एक ही धातुसे बने हुए हैं । शरीरको संसारसे अलग नहीं कर सकते । अतः शरीरकी ममताका नाश होते ही सांसारिक कामनाओंका भी नाश हो जाता है । |