मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुओंमें ‘मैं’-पन और
‘मेरा’-पन होनेसे ही कामनाओंकी उत्पति होती है । सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति आजतक किसीकी नहीं हुई, न होगी
और न हो ही सकती है । जिन कामनाओंकी पूर्ति होती है, वे भी परिणाममें दुःख ही देती
हैं । कारण कि एक कामनाकी पूर्ति होनेपर दूसरी अनेक कामनाएँ पैदा हो जाती हैं,
जिससे कामना आपूर्तिका दुःख ज्यों-का-त्यों बना रहता है । मनुष्य समझता है कि कामनाकी पूर्ति होनेपर मैं स्वतन्त्र हो गया, पर
वास्तवमें वह काम्य पदार्थके पराधीन हो जाता है । परन्तु प्रमादके कारण वह
पराधीनतामें भी सुखका अनुभव करता है । मनुष्यको इस पराधीनतासे छुड़ानेके लिये भगवान्के मंगलमय विधानसे दुःख आता है
। परन्तु मनुष्य दुःखसे दुःखी होकर भगवान्के मंगलमय विधानकी भी अवहेलना कर देता
है । अगर वह दुःखसे दुःखी न
होकर दुःखके कारणकी खोज करे और सम्पूर्ण दुःखोंके कारण ‘कामना’ को मिटा दे तो वह
सदाके लिये सुखी हो जायगा । प्रत्येक साधकके लिये निष्काम होना
बहुत आवश्यक है; क्योंकि निष्काम हुए बिना साधक अपने कर्तव्यका पालन नहीं कर सकता
। इतना ही नहीं, कामनाके कारण वह साध्यरूप भगवान्को भी कामनापूर्तिका साधन बना लेता
है ।
तात्पर्य है कि वह कोई भी कामना रखकर भगवान्का भजन करता
है तो उसका साध्य तो वह काम्य पदार्थ होता है और भगवान् उसकी प्राप्तिके साधन
होते हैं । जबतक कामना रहती है, तबतक मनुष्य पराधीन रहता है । पराधीन मनुष्य न तो त्याग कर सकता है, न सेवा कर सकता है और न
प्रेम ही कर सकता है । वह न तो ज्ञानयोगी बन सकता है, न कर्मयोगी बन सकता
है और न भक्तियोगी ही बन सकता है । अतः पराधीनताको मिटानेके लिये निष्काम होना
बहुत आवश्यक है । कामनाकी पूर्तिमें तो सब मनुष्य
पराधीन हैं, पर कामनाका त्याग करनेमें सब-के-सब मनुष्य
स्वाधीन और समर्थ हैं । प्रत्येक मनुष्य स्वाधीनतापूर्वक स्वाधीनता
(मुक्ति)-की प्राप्ति कर सकता है । परन्तु जबतक मनुष्यके भीतर कामना रहती है, तबतक
वह स्वाधीन नहीं हो सकता । पराधीनताका सर्वथा नाश निष्काम होनेपर ही सम्भव है ।
निष्काम होनेपर साधक संसारपर विजय प्राप्त कर लेता है । कारण कि कामनावाले
मनुष्यको कइयोंके अधीन होना पड़ता है, पर जिसको कुछ नहीं
चाहिये, उसको किसीके भी अधीन नहीं होना पड़ता । उसका मूल्य संसारसे अधिक हो
जाता है । वह तीनों योगोंका अधिकारी बन जाता है । इतना ही नहीं, वह भगवत्प्रेमका
भी पात्र बन जाता है; क्योंकि कामनावाला मनुष्य किसीसे प्रेम नहीं कर सकता ।
जब कर्ता निष्काम होता है, तब उसके द्वारा स्वतः
कर्तव्य-कर्मका पालन होने लगता है । कर्ता निष्काम हुए बिना कर्तव्य-कर्मका पालन
नहीं होता और कर्तव्य-कर्मका पालन हुए बिना प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग नहीं होता
। सकाम मनुष्य प्राप्त परिस्थितिके अधीन हो जाता है तथा अप्राप्त परिस्थितिका
चिन्तन करता रहता है । परन्तु निष्काम होते ही मनुष्य प्राप्त परिस्थितिकी
पराधीनता तथा अप्राप्त परिस्थितिके चिन्तनसे छूटकर परिस्थतिसे अतीत तत्त्वको
प्राप्त कर लेता है । |