जप, तप, व्रत, तीर्थ, स्वाध्याय आदि क्रियासाध्य साधनोंसे
कामनाका नाश नहीं होता । कारण कि कोई भी क्रिया (अभ्यास) करनेके लिये शरीरकी
सहायता लेनी पड़ती है और शरीरके सम्बन्धसे ही कामनाओंकी उत्पत्ति होती है । अतः कामनाका नाश किसी
क्रियासे नहीं होता, प्रत्युत सर्वथा क्रियारहित होनेसे तथा विवेकको महत्त्व
देनेसे होता है । क्रियारहित होते ही शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर
स्वरूपमें स्थिति स्वतः होती है । स्वरूपमें निर्ममता और निष्कामता स्वतःसिद्ध हैं
। अतः शरीर-संसारके सम्बन्धसे होनेवाले ममता, कामना आदि दोषोंका नाश करनेके लिये
क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है । जब साधक निर्मम और निष्काम हो जाता है, तब उसकी अहंता मिट
जाती है । अहंता मिटनेपर फिर उसके लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता‒‘निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २/७१) ।
जबतक साधक अपने लिये कुछ भी करता है, तबतक उसका सम्बन्ध क्रिया और पदार्थसे बना
रहता है । जबतक क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध है, तबतक पराधीनता है । क्रिया और पदार्थ संसारकी सेवाके लिये तो उपयोगी हैं, पर अपने
लिये इनका त्याग ही उपयोगी है । सेवा और त्याग कृत्रिम नहीं हैं, प्रत्युत
स्वतः-स्वाभाविक हैं । इसलिये मैं सेवा करता हूँ अथवा मैं त्याग करता हूँ‒ऐसा
अभिमान करना भूल है । जब संसारमें
मेरी कोई वस्तु है ही नहीं तो त्याग क्या हुआ ? और जिसकी वस्तु थी, वह उसको दे दी तो सेवा क्या हुई
? यह सिद्धान्त है कि जो कभी भी अलग होगा, वह अभी भी अलग है ।
इसलिये नित्यनिवृत्तिकी ही निवृत्ति होती है और
नित्यप्राप्तकी ही प्राप्ति होती है‒इस सत्यको स्वीकार करना साधकके लिये आवश्यक है
। जबतक साधकमें अपने लिये कुछ भी करनेका भाव रहता
है, तबतक उसका सम्बन्ध कर्म-सामग्रीके साथ अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके
साथ बना रहता है । जबतक
शरीरके साथ सम्बन्ध रहता है, तबतक मनुष्यमें न तो निःस्वार्थभाव आता है और न
स्वाधीनता आती है अर्थात् वह न तो कर्मयोगका अधिकारी होता है, न ज्ञानयोगका । जो
मनुष्य स्वार्थभाव और पराधीनतासे रहित नहीं हो सका, वह भगवान्का प्रेमी भी कैसे
हो सकता है ? इसलिये ‘क्रिया’ के आश्रयका त्याग करके
विश्राम (कुछ न करने)-को अपनाना और ‘पदार्थ’ के आश्रयका त्याग करके स्वाश्रय अथवा
भगवदाश्रयको अपनाना प्रत्येक साधकके लिये बहुत आवश्यक है । विवेककी जागृति किसी क्रियासे नहीं होती, प्रत्युत क्रियारहित होनेसे होती है । विवेकको महत्त्व देनेसे विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान किसी क्रिया या पदार्थके द्वारा नहीं होता, प्रत्युत अपने ही द्वारा होता है । जिसकी प्राप्ति अपने द्वारा होती है, उसके लिये किसी अभ्यासकी आवश्यकता नहीं होती । अभ्याससे तो उलटे वह दूर होता है ! मनुष्य जिन करणों (मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ)-से संसारको देखता है, उनसे अपने-आपको (करणरहित सत्तामात्र स्वरूपको) नहीं देख सकता‒‘यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति’ (गीता ६/२०) । तात्पर्य है कि अपने-आपको किसी करणके द्वारा नहीं देखा जा सकता, प्रत्युत करणोंके त्यागसे ही देखा जा सकता है । |