।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                     


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७८ शुक्रवार

      कल्याणके तीन सुगम मार्ग

कर्मयोगका मार्ग

जब साधक अपने जीवनमें बुराईका त्याग कर देता है, तब कर्मयोगकी सिद्धि हो जाती है । बुराईका त्याग तीन बातोंसे होता है‒

(१) किसीका भी बुरा न करना

(२) किसीको भी बुरा न समझना और

(३) किसीका भी बुरा न चाहना ।

बुराईके त्याग किये बिना मनुष्य कर्तव्य-परायण नहीं हो सकता ।

मनुष्य किसीका भी बुरा करता है, जब वह स्वार्थवश खुद बुरा बनता है । खुदको बुरा बनाये बिना मनुष्य किसीका भी बुरा नहीं कर सकता । कारण कि जैसे कर्ता होता है, वैसे ही कर्म होते हैं‒यह सिद्धान्त है । कर्म कर्ताके अधीन होते हैं । इसलिये सबसे पहले मनुष्यको चाहिये कि वह अपनेको साधक स्वीकार करे । जब कर्ता साधक होगा तो फिर उसके द्वारा साधकके विपरीत कर्म कैसे होंगे ? साधकके द्वारा किसीका बुरा नहीं होता । इतना नहीं, वह अपने प्रति बुराई करनेवालेका भी बुरा नहीं करता, प्रत्युत उसपर दया करता है । बुराईके बदले बुराई करनेसे तो बुराईकी वृद्धि ही होगी, बुराईकी निवृत्ति कैसे होगी ? बुराईके बदले बुराई न करनेसे तथा भलाई करनेसे ही बुराईकी निवृत्ति हो सकती है ।

कोई भी मनुष्य सर्वथा बुरा नहीं होता और सभीके लिये बुरा नहीं होता । मनुष्य सर्वथा भला तो हो सकता है, पर सर्वथा बुरा नहीं हो सकता । कारण कि बुराई कृत्रिम, आगन्तुक, अस्वाभाविक है । बुराईकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इसलिये बुराईको न दुहरानेसे बुराई सर्वथा मिट जाती है । बुराईको न दुहराना साधकका खास काम है । बुराईको न दुहरानेसे मनुष्य बुरा नहीं रहता, प्रत्युत भला हो जाता है ।

मनुष्यको किसीको भी बुरा समझनेका अधिकार नहीं है । दूसरेमें जो बुराई दीखती है, वह उसके स्वरूपमें नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक है । मनुष्यके स्वभावमें यह दोष रहता है कि वह अपनी बुराईको तो क्षमा कर देता है, पर दूसरेकी बुराईको देखकर उसके प्रति न्याय करता है । साधकका कर्तव्य है कि वह अपने प्रति न्याय करे और दूसरेके प्रति क्षमा करे । भगवान्‌का अंश होनेके नाते मनुष्यमात्र स्वरूपसे निर्दोष है‒

ईस्वर  अंस  जीव  अबिनासी ।

चेतन अमल सहज सुख रासी ॥

(मानस, उत्तर ११७/२)

इसलिये किसी भी मनुष्यमें बुराईकी स्थापना नहीं करनी चाहिये । आगन्तुक बुराईके आधारपर किसीको बुरा समझना अनुचित है । दूसरा चाहे बुरा हो या न हो, पर उसको बुरा समझनेसे अपनेमें बुराई आ ही जायगी । दूसरेको बुरा समझेंगे तो अपने भीतर बुरे संकल्प पैदा होंगे, क्रोध पैदा होगा, वैरभाव पैदा होगा, विषमता पैदा होगी, पक्षपात पैदा होगा । इनके पैदा होनेसे कर्म भी अशुद्ध होने लगेंगे । अतः बुराईकी स्थापना न तो अपनेमें करनी चाहिये और न दूसरोंमें ही करनी चाहिये । बुराईकी स्थापना करनेसे न अपना हित होता है, न दूसरेका । किसीको बुरा समझना अथवा किसीका बुरा चाहना बुराई करनेसे भी बड़ा दोष है ।