कर्मयोगका मार्ग जब साधक अपने जीवनमें बुराईका त्याग कर देता है, तब
कर्मयोगकी सिद्धि हो जाती है । बुराईका त्याग तीन बातोंसे होता है‒ (१) किसीका भी बुरा न करना (२) किसीको भी बुरा न समझना और (३) किसीका भी बुरा न चाहना । बुराईके त्याग किये बिना मनुष्य कर्तव्य-परायण नहीं हो सकता
। मनुष्य किसीका भी बुरा करता है, जब वह स्वार्थवश खुद बुरा
बनता है । खुदको
बुरा बनाये बिना मनुष्य किसीका भी बुरा नहीं कर सकता । कारण कि जैसे कर्ता
होता है, वैसे ही कर्म होते हैं‒यह सिद्धान्त है । कर्म कर्ताके अधीन होते हैं । इसलिये सबसे पहले मनुष्यको चाहिये कि वह अपनेको साधक स्वीकार
करे । जब कर्ता साधक होगा तो फिर उसके द्वारा साधकके विपरीत कर्म कैसे
होंगे ? साधकके द्वारा किसीका बुरा नहीं होता । इतना नहीं, वह अपने प्रति बुराई
करनेवालेका भी बुरा नहीं करता, प्रत्युत उसपर दया करता है । बुराईके बदले बुराई करनेसे तो बुराईकी वृद्धि ही होगी, बुराईकी
निवृत्ति कैसे होगी ? बुराईके बदले बुराई न करनेसे तथा भलाई करनेसे ही बुराईकी
निवृत्ति हो सकती है । कोई भी मनुष्य सर्वथा बुरा नहीं होता
और सभीके लिये बुरा नहीं होता । मनुष्य सर्वथा भला तो हो सकता है, पर सर्वथा बुरा
नहीं हो सकता । कारण कि बुराई कृत्रिम, आगन्तुक,
अस्वाभाविक है । बुराईकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इसलिये बुराईको न दुहरानेसे
बुराई सर्वथा मिट जाती है । बुराईको न दुहराना साधकका खास काम है । बुराईको
न दुहरानेसे मनुष्य बुरा नहीं रहता, प्रत्युत भला हो जाता है । मनुष्यको किसीको भी बुरा समझनेका अधिकार नहीं है । दूसरेमें
जो बुराई दीखती है, वह उसके स्वरूपमें नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक है । मनुष्यके
स्वभावमें यह दोष रहता है कि वह अपनी बुराईको तो क्षमा कर देता है, पर दूसरेकी
बुराईको देखकर उसके प्रति न्याय करता है । साधकका
कर्तव्य है कि वह अपने प्रति न्याय करे और दूसरेके प्रति क्षमा करे । भगवान्का
अंश होनेके नाते मनुष्यमात्र स्वरूपसे निर्दोष है‒ ईस्वर अंस
जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ॥ (मानस, उत्तर॰ ११७/२)
इसलिये किसी भी मनुष्यमें बुराईकी स्थापना नहीं करनी चाहिये
। आगन्तुक बुराईके आधारपर किसीको बुरा समझना अनुचित है । दूसरा
चाहे बुरा हो या न हो, पर उसको बुरा समझनेसे अपनेमें बुराई आ ही जायगी । दूसरेको
बुरा समझेंगे तो अपने भीतर बुरे संकल्प पैदा होंगे, क्रोध पैदा होगा, वैरभाव पैदा
होगा, विषमता पैदा होगी, पक्षपात पैदा होगा । इनके पैदा होनेसे कर्म भी अशुद्ध
होने लगेंगे । अतः बुराईकी स्थापना न तो अपनेमें करनी चाहिये और न दूसरोंमें ही
करनी चाहिये । बुराईकी स्थापना करनेसे न अपना हित होता है, न दूसरेका । किसीको बुरा समझना अथवा किसीका बुरा चाहना बुराई करनेसे भी बड़ा
दोष है । |