।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                      


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७८ शनिवार

      कल्याणके तीन सुगम मार्ग

मनुष्य किसीका बुरा चाहता है तो उसका बुरा तो होता नहीं, पर अपना बुरा अवश्य हो जाता है । दूसरेका बुरा चाहनेवालेकी हानि ज्यादा होती है; क्योंकि बुरा चाहनेसे उसके भावमें बुराई आ जाती है । कर्मकी अपेक्षा भाव सूक्ष्म और व्यापक होता है । अतः दूसरेका बुरा चाहनेमें अपना ही बुरा निहित है । यह नियम है कि हम दूसरेके प्रति जो करेंगे, वही परिणाममें अपने प्रति हो जायगा । इसलिये साधकको किसीका भी बुरा चाहनेका, बुरा समझनेका अथवा बुरा करनेका अधिकार नहीं है । उसको समानरूपसे सबके हितका भाव रखते हुए सबकी सेवा करनेका ही अधिकार है । सेवा करनेसे ही वह कर्मयोगका अधिकारी होता है । दूसरेका बुरा करनेवाला, बुरा समझनेवाला अथवा बुरा चाहनेवाला दूसरेपर शासन तो कर सकता है, पर सेवा नहीं कर सकता । शासक सेवक नहीं हो सकता और सेवक शासक नहीं हो सकता । समाजकी उन्नति सेवकके द्वारा होती है, शासकके द्वारा नहीं ।

भलाई करना तो परिश्रम-साध्य है, पर बुराई न करनेमें कोई परिश्रम नहीं होता तथा कोई खर्चा भी नहीं होता । इसलिये बुराईका त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र तथा समर्थ हैं । यहाँ एक शंका होती है कि जब दूसरा व्यक्ति हमारे साथ बुराई कर रहा है तो फिर हम कैसे उसको बुरा न समझें, उसका बुरा न चाहें ? इसका समाधान यह है कि दूसरा हमारा बुरा करता है तो यह बुराई उसमें आयी हुई है, स्वाभाविक नहीं है । स्वरूपसे तो वह सर्वथा बुराई-रहित है । दूसरी बात, हमारा बुरा होनेसे हमारे पुराने पाप कटते हैं और हम शुद्ध होते हैं । तीसरी बात, गहरा विचार करनेसे पता लगता है कि दूसरा हमारे साथ बुराई तभी करता है, जब हम निर्बल होते हैं । हम निर्बल तब होते हैं, जब प्राणोंमें मोह होनेके कारण हम मृत्युसे डरते हैं और इस कारण अपने प्रति होनेवाली बुराईको हम सहते हैं । अगर हमारेमें प्राणोंका मोह न रहे, जीनेकी इच्छा और मरनेका भय न रहे तो कोई बलवान्‌ व्यक्ति हमारेपर अत्याचार नहीं कर सकेगा । यह सिद्धान्त है कि भौतिक बल कभी भी आध्यात्मिक बलपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता । नाशवान्‌ वस्तु अविनाशीपर विजय कैसे कर सकती है ? अन्धकार प्रकाशपर विजय कैसे कर सकता है ? जिसका मिलने और बिछुड़नेवाले शरीरमें ‘मैं’-पन और ‘मेरा’-पन नहीं है, उसको कोई अपने अधीन नहीं कर सकता । उसपर कोई विजय नहीं कर सकता । विचार करना चाहिये कि जब शरीरका नाश होनेपर भी हमारी सत्ताका नाश नहीं होता[*], तो फिर शरीरको रखनेकी इच्छा और मृत्युका भय करनेसे क्या लाभ ? इसलिये साधकको अपना कर्तव्य जितना प्रिय होता है, उतने अपने प्राण भी प्रिय नहीं होते । अपने कर्त्तव्यकी रक्षाके लिये वह प्राणोंका भी त्याग कर देता है । ऐसे साधकको कोई बलवान्‌-से-बलवान्‌ व्यक्ति भी अपने अधीन करके कर्तव्यच्युत नहीं कर सकता ।



[*] न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।

   अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

                                                                (गीता २/२०)