मनुष्य किसीका बुरा चाहता है तो उसका बुरा तो होता नहीं, पर
अपना बुरा अवश्य हो जाता है । दूसरेका बुरा चाहनेवालेकी
हानि ज्यादा होती है; क्योंकि बुरा चाहनेसे उसके भावमें बुराई आ जाती है । कर्मकी
अपेक्षा भाव सूक्ष्म और व्यापक होता है । अतः दूसरेका बुरा चाहनेमें अपना
ही बुरा निहित है । यह नियम है कि हम दूसरेके प्रति जो करेंगे, वही परिणाममें अपने
प्रति हो जायगा । इसलिये साधकको किसीका भी बुरा चाहनेका, बुरा समझनेका अथवा बुरा
करनेका अधिकार नहीं है । उसको समानरूपसे सबके हितका भाव रखते हुए सबकी सेवा करनेका
ही अधिकार है । सेवा करनेसे ही वह कर्मयोगका अधिकारी होता है । दूसरेका बुरा
करनेवाला, बुरा समझनेवाला अथवा बुरा चाहनेवाला दूसरेपर शासन तो कर सकता है, पर सेवा
नहीं कर सकता । शासक सेवक नहीं हो सकता और सेवक शासक
नहीं हो सकता । समाजकी उन्नति सेवकके द्वारा होती है, शासकके द्वारा नहीं । भलाई करना तो परिश्रम-साध्य है, पर बुराई न करनेमें कोई
परिश्रम नहीं होता तथा कोई खर्चा भी नहीं होता । इसलिये बुराईका
त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र तथा समर्थ हैं । यहाँ एक शंका होती है कि जब
दूसरा व्यक्ति हमारे साथ बुराई कर रहा है तो फिर हम कैसे उसको बुरा न समझें, उसका
बुरा न चाहें ? इसका समाधान यह है कि दूसरा हमारा बुरा करता है तो यह बुराई उसमें
आयी हुई है, स्वाभाविक नहीं है । स्वरूपसे तो वह सर्वथा बुराई-रहित है । दूसरी
बात, हमारा बुरा होनेसे हमारे पुराने पाप कटते हैं और हम शुद्ध होते हैं । तीसरी
बात, गहरा विचार करनेसे पता लगता है कि दूसरा हमारे साथ बुराई तभी करता है, जब हम
निर्बल होते हैं । हम निर्बल तब होते हैं, जब प्राणोंमें मोह होनेके कारण हम मृत्युसे
डरते हैं और इस कारण अपने प्रति होनेवाली
बुराईको हम सहते हैं । अगर हमारेमें प्राणोंका मोह न रहे, जीनेकी इच्छा और
मरनेका भय न रहे तो कोई बलवान् व्यक्ति हमारेपर अत्याचार नहीं कर सकेगा । यह
सिद्धान्त है कि भौतिक बल कभी भी आध्यात्मिक बलपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता ।
नाशवान् वस्तु अविनाशीपर विजय कैसे कर सकती
है ? अन्धकार प्रकाशपर विजय कैसे कर सकता है ? जिसका मिलने और बिछुड़नेवाले
शरीरमें ‘मैं’-पन और ‘मेरा’-पन नहीं है, उसको कोई अपने अधीन नहीं कर सकता । उसपर
कोई विजय नहीं कर सकता । विचार करना चाहिये कि जब शरीरका नाश होनेपर भी हमारी
सत्ताका नाश नहीं होता[*], तो फिर शरीरको रखनेकी इच्छा और मृत्युका भय करनेसे क्या
लाभ ? इसलिये साधकको अपना कर्तव्य जितना प्रिय होता है,
उतने अपने प्राण भी प्रिय नहीं होते । अपने कर्त्तव्यकी रक्षाके लिये वह
प्राणोंका भी त्याग कर देता है । ऐसे साधकको कोई बलवान्-से-बलवान् व्यक्ति भी
अपने अधीन करके कर्तव्यच्युत नहीं कर सकता । [*] न जायते म्रियते वा
कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ (गीता २/२०) |