।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                       


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७८ रविवार

      कल्याणके तीन सुगम मार्ग

कर्मयोगी अपने कर्तव्यका पालन करते हुए दूसरेके अधिकारकी रक्षा करता है । जो दूसरेका अधिकार होता है, वही हमारा कर्तव्य होता है । जैसे, माता-पिताकी सेवा करना पुत्रका कर्तव्य है और माता-पिताका अधिकार है । अपना अधिकार चाहनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं कर सकता । इसलिये कर्मयोगका साधक अपने अधिकारका त्याग करता है । अपने अधिकारका त्याग करनेसे नया राग पैदा नहीं होता और दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनेसे पुराना राग मिट जाता है और साधक सुगमतापूर्वक रागरहित हो जाता है ।

मनुष्य अपने अधिकारका त्याग तथा दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनेमें तो स्वतन्त्र है, पर अधिकार प्राप्त करनेमें स्वतन्त्र नहीं है । अधिकार पानेकी लालसा मनुष्यको कर्तव्यच्युत करके उसको काम, क्रोध, लोभ आदि दोषोंसे युक्त कर देती है, जिससे उसका पतन हो जाता है । इसलिये कर्मयोगका साधक दूसरेके अधिकारकी रक्षा करता है ।

जब अपने कहलानेवाले शरीरपर ही हमारा अधिकार नहीं चलता, तो फिर शरीर जिसका अंश है, उस संसारपर हमारा अधिकार कैसे चल सकता है ? परन्तु हमारेपर शरीर और संसारका अधिकार अवश्य है । शरीरका अधिकार यह है कि हम उसको आलसी, अकर्मण्य, प्रमादी, असंयमी न बनने दें और संसारका अधिकार यह है कि हम शरीरके द्वारा संसारकी सेवा करें, किसीका भी अहित न करें, सबको सुख पहुँचायें ।

समाजमें ज्यों-ज्यों अधिकार पानेकी लालसा बढ़ती जाती हैं, त्यों-ही-त्यों लोग अपने कर्तव्यसे हटते जाते हैं, जिससे समाजमें संघर्ष पैदा हो जाता है । अधिकार पानेकी इच्छासे गुलामी आ जाती है । अतः अपने अधिकारका त्याग करना प्रत्येक साधकके लिये आवश्यक है । अपने अधिकारका त्याग करनेसे उदारता और असंगता‒दोनों आ जाती हैं । उदारता आनेसे कर्मयोगकी तथा असंगता आनेसे ज्ञानयोगकी सिद्धि हो जाती है ।

वास्तवमें अधिकार देनेकी वस्तु है, लेनेकी वस्तु नहीं । कोई जबर्दस्ती अधिकार लेना भी चाहे तो नहीं ले सकता । बलवान्‌-से-बलवान्‌ व्यक्ति भी दूसरोंका विनाश तो कर सकता है, पर दूसरोंका अपने प्रति आदर, प्रेम, श्रद्धा, विश्वास उत्पन्न नहीं करा सकता । यद्यपि मनुष्यका मूल्य संसारसे अधिक है, तथापि अधिकार पानेकी लालसासे वह अपना मूल्य गिरा देता है । अधिकार पानेकी लालसाके मूलमें नाशवान्‌ सुखकी लालसा है । जब साधक सुखकी आसक्तिको मिटा देता है, तब अधिकार पानेकी लालसा मिट जाती है और साधकका कर्मयोग सिद्ध हो जाता है ।