।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                        


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७८ सोमवार

      कल्याणके तीन सुगम मार्ग

भक्तियोगका मार्ग

यह नियम है कि प्रत्येक रचनाके मूलमें कोई-न-कोई रचयिता रहता है । प्रत्येक उत्पत्तिके मूलमें कोई-न-कोई अनुत्पन्न तत्त्व रहता है । अगर मनुष्य संसारको तो मानता है, पर संसारके रचयिताको नहीं मानता तो यह उसकी बहुत बड़ी भूल है । जो परा (जीव) और अपरा (जगत्‌)‒दोनोंका आश्रय तथा प्रकाशक है, उस परमात्मापर दृढ़ विश्वास करके उसके साथ आत्मीयता करना अथवा उसके शरणागत हो जाना साधकके लिये बहुत आवश्यक है । वह परमात्मा कैसा है, कैसा नहीं‒यह जानना साधकके लिये आवश्यक नहीं है । साधकके लिये केवल इतना ही मानना आवश्यक है कि परमात्मा है और वह मेरा है । उसको इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जाना नहीं जा सकता, प्रत्युत केवल माना जा सकता है । रचना अपने रचयिताको कैसे जान सकती है ? अंश अपने अंशीको कैसे जान सकता है ?

परमात्मा विचारका विषय नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वासका विषय है । उसको मानने अथवा न माननेमें मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्र है । विचारका विषय तो जीव और जगत्‌ हैं । जिसके विषयमें हम कुछ नहीं जानते, जिसको हमने देखा नहीं है, उसपर श्रद्धा-विश्वास ही किया जा सकता है । अपने द्वारा किये हुए श्रद्धा-विश्वासको दूसरा कोई मिटा नहीं सकता ।

ईश्वरको हम जान सकते ही नहीं और माने बिना रह सकते ही नहीं । जैसे, माता-पिताको हम जान नहीं सकते, प्रत्युत मान ही सकते हैं; क्योंकि उस समय हमारी (शरीरकी) सत्ता ही नहीं थी । अगर हम अपने शरीरकी सत्ता मानते हैं तो माता-पिताकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । हम हैं तो माता-पिता भी हैं । कार्य है तो उसका कारण भी है । ऐसे ही हम स्वयं हैं तो ईश्वर भी है । हमारी सत्ता ईश्वरके होनेमें प्रत्यक्ष प्रमाण है । हम नहीं हैं‒इस तरह अपने होनेपनका निषेध कोई कर सकता ही नहीं । जब अपने होनेपनका निषेध नहीं हो सकता, तो फिर ईश्वरका भी निषेध नहीं हो सकता ।

माताकी अपेक्षा भी पिताको जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि मातासे जन्म लेते समय तो हमारा शरीर बन चुका था, पर पिताके समय तो हमारे शरीरकी सत्ता ही नहीं थी ! भगवान्‌ सम्पूर्ण संसारके पिता हैं‒‘अहं बीजप्रदः पिताः’ (गीता १४/४), ‘पिताहमस्य जगतः’ (गीता ९/१७), ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता ११/४३) । इसलिये भगवान्‌को जानना तो सर्वथा असम्भव है । उनको तो माना ही जा सकता है । माने बिना दूसरा कोई उपाय ही नहीं है । मानना जाननेसे कमजोर नहीं होता । भगवान्‌को दृढ़तापूर्वक माननेसे उनमें आत्मीयता हो जाती है और आत्मीयता होनेसे उनमें प्रेम हो जाता है ।