जो पहले नहीं था, बादमें भी नहीं रहेगा तथा
वर्तमानमें भी प्रतिक्षण नाशकी ओर जा रहा है, वह शरीर तथा संसार विश्वासके योग्य
हैं ही नहीं । जो एक क्षण
भी हमारे साथ न रहे, प्रतिक्षण बदलता रहे, उसपर विश्वास कैसे किया जा सकता है ? उसकी सेवा की जा सकती है, पर विश्वास नहीं किया जा सकता ।
विश्वास तो उसीपर किया जा सकता है, जो सदा
हमारे साथ रहे, कभी हमसे बिछुड़े नहीं । भगवान् सदा हमारे साथ रहते
हैं‒‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५/१५) ।
हम पशु-पक्षी आदि किसी भी योनिमें चले जायँ, स्वर्ग-नरकादि किसी भी लोकमें चले
जायँ तो भी भगवान् हमारा साथ कभी नहीं छोड़ते । जब मनुष्य अपनी आवश्यकताकी पूर्ति न तो खुद कर सकता है और न
उसकी पूर्ति संसार ही कर सकता है, तब वह स्वतः भगवान्की ओर खिंचता है, जिसको उसने
देखा नहीं है, प्रत्युत सुना है । जब मनुष्यपर कोई संकट आता है और उससे बचनेका कोई
उपाय नहीं दीखता तथा उससे बचनेके लिये किये गये सब प्रयत्न व्यर्थ चले जाते हैं,
तब उसको भगवान्पर विश्वास करके उनको पुकारना ही पड़ता है । जो मनुष्य भगवान्पर विश्वास न करके
शरीर-संसारपर विश्वास करता है, वह जन्म-मरणके चक्रमें फँसकर तरह-तरहके दुःख पाता
है । शरीर आदिपर विश्वास
करनेसे अहंता, ममता, कामना, आसक्ति, लोभ आदि अनेक विकारोंकी उत्पत्ति होती है ।
परिणाम यह होता है कि शरीर आदि तो रहते नहीं, पर उसका सम्बन्ध रह जाता है, जो अनेक
योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बनता है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य
सदसद्योनिजन्मसु’ (१३/२१) । जो न तो भगवान्पर विश्वास करता है और न शरीर-संसारपर ही
विश्वास करता है, प्रत्युत अपने-आपपर विश्वास करता है, वह ज्ञानयोगका साधक हो जाता
है । ऐसा साधक ‘मैं कौन हूँ’‒इसकी खोज करता है । ‘मैं’ की खोज करते-करते ‘मैं’ मिट
जाता है और ‘है’ रह जाता है । साधक ‘है’ (परमात्मतत्त्व)-को स्वीकार करे अथवा न
करे, पर अन्तमें प्राप्ति ‘है’ की ही होती है । जैसे, कोई कितना ही कूदे-फाँदे या
नाचे, पर अन्तमें वह जमीनपर ही टिकेगा !
एक सत्तामात्र है‒इस प्रकार दृढ़तापूर्वक परमात्म-तत्त्वपर
विश्वास होनेसे शरीर तथा संसारका विश्वास निर्जीव, फीका हो जाता है । कारण कि
परस्परविरुद्ध दो विश्वास एक साथ नहीं रह सकते । जब साधक
यह स्वीकार करता है कि परमात्मा अद्वितीय है, सदा है, सर्वसमर्थ है, सर्वज्ञ है,
सर्वसुहृद् है, सभीका है और सब जगह है, तब उसकी परमात्मापर स्वतः श्रद्धा जाग्रत्
हो जाती है । परमात्मामें श्रद्धा-विश्वास होनेपर साधक एक परमात्माके सिवाय
दूसरे किसीकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता ही नहीं । ऐसी स्थितिमें जैसे नींदसे
जागते ही स्वप्नकी विस्मृति तथा जाग्रतकी स्मृति हो जाती है, ऐसे ही साधकके भीतर
स्वतः परमात्मा (‘है’)-के नित्य सम्बन्धकी स्मृति जाग्रत् हो जाती है और संसार
(‘नहीं’)-की सर्वथा विस्मृति हो जाती है‒‘नासतो विद्यते
भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । परमात्माके साथ नित्य सम्बन्धकी
स्मृति जाग्रत् होते ही साधककी परमात्मासे अभिन्नता अथवा आत्मीयता हो जाती है । परमात्मासे अभिन्नता होते ही साधकको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी
प्राप्ति हो जाती है, जो मानवजीवनका चरम लक्ष्य है । |