।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                          


आजकी शुभ तिथि–
    आषाढ़ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७८ बुधवार

      कल्याणके तीन सुगम मार्ग

एक शंका होती है कि जब परमात्मा सब समयमें तथा जब जगह विद्यमान है, तो फिर साधकको उससे दूरी क्यों प्रतीत होती है ? इसपर गहरा विचार करनेसे पता लगता है कि जब साधक मिले हुए तथा बिछुड़नेवाले शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहता है, तब उसको परमात्मासे दूरी प्रतीत होती है । कारण कि परमात्माकी प्राप्ति क्रिया और पदार्थके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत क्रिया और पदार्थके त्यागसे अपने ही द्वारा होती है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको संसारकी सेवामें समर्पित कर दे और अपने-आपको (सत्तामात्र स्वरूपको) भगवान्‌के समर्पित कर दे । जब साधक स्वयं सब ओरसे विमुख होकर एकमात्र भगवान्‌के ही शरणागत हो जाता है, तब भगवान्‌ कृपापूर्वक उसको अपना लेते हैं, अपनेसे अभिन्न कर लेते हैं ।

विचारपूर्वक देखें तो जो सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, अवस्था, परिस्थिति आदिमें परिपूर्ण है, उससे दूरी कैसे सम्भव है ? यह सिद्धान्त है कि जिससे दूरी नहीं होती, उसकी प्राप्ति क्रियासे नहीं होती, प्रत्युत चाहनामात्रसे होती है । अगर साधक मिले हुए और बिछुड़नेवाले प्राणी-पदार्थको अपना और अपने लिये न माने और भगवान्‌के साथ आत्मीयता (अपनापन) कर ले तो फिर भगवान्‌से दूरी नहीं रहेगी; क्योंकि वास्तवमें वह भगवान्‌का ही अंश है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) । मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदिको तो अपना मान लेता है, पर जिसने उनको दिया है, उसको (भगवान्‌को) अपना नहीं मानता । वास्तवमें वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत उसको देनेवाला अपना है । जिस क्षण साधक भगवान्‌को अपना मानकर उनके शरणागत हो जाता है, उसी क्षण भगवान्‌ साधकका भूतकाल न देखकर उसके वर्तमानको देखते हैं, उसके आचरणोंको न देखकर उसके भावोंको देखते हैं‒

रहति न प्रभु चित चूक किए की ।

करत सुरति सय  बार हिए  की ॥

(मानस, बाल२९/३)

वे अपने शरणागत भक्तको निर्भय, निःशोक, निश्चिन्त और निःशंक कर देते हैं । परन्तु साथमें अन्यका आश्रय नहीं रहना चाहिये  । अन्यका आश्रय, अन्यका विश्वास और अन्यका सम्बन्ध रहनेसे भगवान्‌का आश्रय दृढ़ नहीं होता । जिस मनुष्यको एक भगवान्‌के सिवाय और कोई अपना नहीं दीखता तथा जिसको अपनेमें कोई विशेषता नहीं दीखती, वह सुगमतापूर्वक भगवान्‌के आश्रित हो जाता है । भगवान्‌के आश्रित होनेपर उसको अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता । उसके द्वारा होनेवाली प्रत्येक प्रवृत्ति भगवान्‌की पूजा होती है ।

भगवान्‌के साथ सम्बन्ध केवल प्रेमकी प्राप्तिके लिये ही होना चाहिये । प्रेम प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय है‒भगवान्‌में अपनापन । एकमात्र भगवान्‌को अपना माननेसे प्रेमकी जागृति होती है । प्रेमकी जागृति होनेपर अहम्‌का सर्वथा नाश हो जाता है । अहम्‌का सर्वथा नाश होनेपर भगवान्‌से दूरी, भेद और भिन्नता‒तीनों सर्वथा मिट जाते हैं ।