एक शंका होती है कि जब परमात्मा सब समयमें तथा जब जगह
विद्यमान है, तो फिर साधकको उससे दूरी क्यों प्रतीत होती है ? इसपर गहरा विचार
करनेसे पता लगता है कि जब साधक मिले हुए तथा बिछुड़नेवाले
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहता है, तब उसको
परमात्मासे दूरी प्रतीत होती है । कारण कि परमात्माकी प्राप्ति क्रिया और पदार्थके
द्वारा नहीं होती, प्रत्युत क्रिया और पदार्थके त्यागसे अपने ही द्वारा होती है । इसलिये
साधकको चाहिये कि वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको संसारकी सेवामें समर्पित कर दे
और अपने-आपको (सत्तामात्र स्वरूपको) भगवान्के समर्पित कर दे । जब साधक स्वयं सब ओरसे विमुख होकर एकमात्र भगवान्के ही
शरणागत हो जाता है, तब भगवान् कृपापूर्वक उसको अपना लेते हैं, अपनेसे अभिन्न कर
लेते हैं । विचारपूर्वक देखें तो जो सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति,
घटना, अवस्था, परिस्थिति आदिमें परिपूर्ण है, उससे दूरी कैसे सम्भव है ? यह सिद्धान्त है कि जिससे दूरी नहीं होती, उसकी प्राप्ति
क्रियासे नहीं होती, प्रत्युत चाहनामात्रसे होती है । अगर साधक मिले हुए और
बिछुड़नेवाले प्राणी-पदार्थको अपना और अपने लिये न माने और भगवान्के साथ आत्मीयता
(अपनापन) कर ले तो फिर भगवान्से दूरी नहीं रहेगी; क्योंकि वास्तवमें वह भगवान्का ही अंश है‒‘ममैवांशो
जीवलोके’ (गीता १५/७) । मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह मिली हुई
वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदिको तो अपना मान लेता है, पर जिसने उनको दिया है, उसको
(भगवान्को) अपना नहीं मानता । वास्तवमें वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत उसको
देनेवाला अपना है । जिस क्षण साधक भगवान्को अपना मानकर
उनके शरणागत हो जाता है, उसी क्षण भगवान् साधकका भूतकाल न देखकर उसके वर्तमानको
देखते हैं, उसके आचरणोंको न देखकर उसके भावोंको देखते हैं‒ रहति न प्रभु चित चूक किए की । करत सुरति सय बार
हिए की ॥ (मानस, बाल॰२९/३) वे अपने शरणागत भक्तको निर्भय, निःशोक, निश्चिन्त और निःशंक
कर देते हैं । परन्तु साथमें अन्यका आश्रय नहीं रहना चाहिये । अन्यका आश्रय, अन्यका विश्वास और अन्यका
सम्बन्ध रहनेसे भगवान्का आश्रय दृढ़ नहीं होता । जिस
मनुष्यको एक भगवान्के सिवाय और कोई अपना नहीं दीखता तथा जिसको अपनेमें कोई
विशेषता नहीं दीखती, वह सुगमतापूर्वक भगवान्के आश्रित हो जाता है । भगवान्के आश्रित
होनेपर उसको अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता । उसके द्वारा होनेवाली प्रत्येक
प्रवृत्ति भगवान्की पूजा होती है । भगवान्के साथ सम्बन्ध केवल प्रेमकी प्राप्तिके लिये ही होना चाहिये । प्रेम प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय है‒भगवान्में अपनापन । एकमात्र भगवान्को अपना माननेसे प्रेमकी जागृति होती है । प्रेमकी जागृति होनेपर अहम्का सर्वथा नाश हो जाता है । अहम्का सर्वथा नाश होनेपर भगवान्से दूरी, भेद और भिन्नता‒तीनों सर्वथा मिट जाते हैं । |