।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                           


आजकी शुभ तिथि–
    आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७८ गुरुवार

      कल्याणके तीन सुगम मार्ग

प्रेमकी जागृतिके बिना अहम्‌का सर्वथा नाश नहीं होता‒

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।

अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥

(मानस, उत्तर४९/३)

मुक्त महापुरुषमें भी प्रेमकी एक माँग (भूख) रहती है । इसलिये जो मुक्तिमें भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसको भगवान्‌ अपना प्रेम प्रदान करते हैं । इस दृष्टिसे मुक्ति भी साधन है और प्रेम साध्य है । प्रेमकी प्राप्तिके बिना साधनकी पूर्णता नहीं होती । भगवान्‌ ज्ञानस्वरूप होते हुए भी प्रेमके भूखे हैं । ज्ञानयोग तथा कर्मयोगके मार्गसे मोक्षकी प्राप्ति होनेपर भी एक सूक्ष्म अहम्‌ रहता है, जिसके कारण भगवान्‌से दूरी और भेद तो मिट जाते हैं, पर उनसे अभिन्नता नहीं होती । यह सूक्ष्म अहम्‌ जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद पैदा करनेवाला होता है । इस सूक्ष्म अहम्‌के कारण ही मुक्त महापुरुषोंमें तथा उनकी मान्यताओं और सिद्धान्तोंमें परस्पर मतभेद रहता है । परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर जब सूक्ष्म अहम्‌ सर्वथा मिट जाता है, तब सम्पूर्ण मतभेद मिट जाते हैं और भगवान्‌से अभिन्नता हो जाती है । अभिन्नता होनेपर एक भगवान्‌के सिवाय अन्य किसीकी भी सत्ता नहीं रहती‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७/१९) ।

उपसंहार

उपनिषद्‌में आता है कि अकेलेमें भगवान्‌का मन नहीं लगा‒‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक१/४/३) । अतः खेल (प्रेम-लीला)-के लिये भगवान्‌ एकसे अनेकरूप हो गये‒‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (तैत्तिरीय२/६) । उन अनेक रूपोंमें श्रीजी तो भगवान्‌के सम्मुख रहीं, पर जीव खेलके खिलौनों (शरीर-संसार)-में ही लग गये ! श्रीजी खिलौनोंमें नहीं लगीं तो उनको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति हो गयी और जीव खिलौनोंमें लग गये तो उनको जन्म-मरणरूप संसारकी प्राप्ति हो गयी । ये खिलौने अपने और अपने लिये हैं ही नहीं । ये तो केवल दूसरोंको सुख पहुँचानेके लिये ही हैं । इनको अपना और अपने लिये मानना बहुत बड़ी भूल है, जिसका त्याग करना मनुष्यका कर्तव्य है । यह एक ही भूल स्थानभेदसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, पाखण्ड आदि अनेक विकारोंके रूपमें हो जाती है । फिर भूलें बढ़ती ही रहती हैं । उनका कोई अन्त नहीं आता ।

अपने-आपको भूलनेसे देहाभिमान उत्पन्न हो जाता है । कर्तव्यको भूलनेसे अकर्तव्य होने लगता है । भगवान्‌को भूलनेसे नाशवान्‌के साथ सम्बन्ध हो जाता है । इस भूलको मिटानेके लिये तीन योग हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । विवेक-विचारपूर्वक संसारसे मिली हुई वस्तुओंसे अलग हो जाय‒यह ज्ञानयोग है । उन वस्तुओंको संसारकी सेवामें लगा दे‒यह कर्मयोग है । मनुष्य स्वयं जिसका अंश है, उस भगवान्‌में लग जाय‒यह भक्तियोग है । परन्तु जो ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्तियोगमें न लगकर संसारमें अर्थात्‌ भोग और संग्रहमें लग जाता है, वह जन्म-मरणमें पड़ जाता है । वह जन्म गया तो मरना बाकी रहता है और मर गया तो जन्मना बाकी रहता है । इस प्रकार वह जन्म-मरणके चक्रमें घूमता रहता है‒‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्’ ।