मनुष्यको तीन शक्तियाँ प्राप्त हैं‒जाननेकी
शक्ति, करनेकी शक्ति और माननेकी शक्ति । जाननेकी शक्ति ज्ञानयोगके लिये, करनेकी शक्ति कर्मयोगके लिये और माननेकी
शक्ति भक्तियोगके लिये है । जाननेकी शक्तिका सदुपयोग है‒अपने
आपको जानना, करनेकी शक्तिका सदुपयोग है‒सेवा करना और माननेकी शक्तिका सदुपयोग है‒भगवान्को
मानना । वस्तु, शरीर, योग्यता और सामर्थ्य‒ये चारों ही चीजें
जड़-विभागमें हैं । चेतन-विभाग (स्वरूप)-तक ये चीजें पहुँचती ही नहीं । इसलिये वस्तु,
शरीर, योग्यता और सामर्थ्य संसारके हैं और संसारके ही काम आते हैं, अपने काम
किंचिन्मात्र भी नहीं आते । जड़-विभाग अर्थात् शरीर-संसारके द्वारा हमें कुछ भी
नहीं मिलता, हमारी किंचिन्मात्र भी पुष्टि नहीं होती, हित नहीं होता ।
शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद ही हमारे काम आता है, हमारे लिये हितकारी होता है ।
इसलिये शरीर-संसारकी सहायतासे कोई भी मनुष्य बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता । शरीरके
द्वारा होनेवाली क्रियाएँ शरीर-संसारके ही काम आती
हैं । उसका सम्बन्ध-विच्छेद ही स्वयंके काम आता है । कुछ करनेसे हमारेको लाभ होगा‒ऐसा सोचना भूल है ।
कारण कि मात्र क्रियाएँ जड़ तथा नाशवान् हैं और स्वयं चेतन तथा अविनाशी है । जड़ वस्तुके द्वारा चेतनको क्या मिलेगा ? नाशवान् वस्तुसे
अविनाशीको क्या लाभ होगा ? जड़ और नाशवान् क्रियासे हमारा भला होनेवाला नहीं है ।
इसलिये हमारा न कर्म करनेसे कोई मतलब होना चाहिये और न तो कर्म नहीं करनेसे कोई
मतलब होना चाहिये‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’
(गीता ३/१८) । ‘करना’ और ‘न करना’‒दोनों प्रकृति (जड़-विभाग)-में हैं और
अभावरूप हैं । स्वयं (चेतन-विभाग)-में ‘करना’ और ‘न करना’ दोनों ही नहीं हैं,
प्रत्युत वह दोनोंको प्रकाशित करनेवाला भावरूप निरपेक्ष तत्त्व है । जैसे ‘करने’
से शरीरको परिश्रम होता है, ऐसे ही ‘न करने’ से अर्थात् सुषुप्तिसे शरीरको
विश्राम मिलता है, स्वयंको नहीं । स्वयंको विश्राम तो स्थूल, सूक्ष्म और
कारण‒तीनों शरीरोंके सम्बन्ध-विच्छेदसे ही मिलेगा । साधकको गहरे उतरकर समझना चाहिये कि मैं स्थूलशरीर नहीं हूँ,
सूक्ष्मशरीर भी नहीं हूँ और कारणशरीर भी नहीं हूँ । वस्तु, योग्यता, बल आदि कुछ भी
मेरा नहीं है । ये सब परिवर्तनशील हैं । मेरा स्वरूप अपरिवर्तनशील सत्तामात्र है ।
उसमें आना-जाना नहीं होता । उसमें उत्पत्ति-विनाश नहीं होता । वह ज्यों-का-त्यों
रहता है । ऐसा समझकर साधक अपने सत्तामात्र स्वरूप
(होनेपन)-में स्थित होकर चुप हो जाय । सत्तामें अर्थात् हमारे होनेपनमें मैंपन नहीं है । मैंपनका सम्बन्ध भूलसे माना हुआ है । ‘मैं हूँ’‒इसमें ‘मैं’ नहीं है, पर ‘हूँ’ है । हमारा अस्तित्व ‘मैं’ के बिना है । ‘है’-रूपसे एक परमात्मा ही सब जगह परिपूर्ण है । उस ‘है’ का अंश ही ‘हूँ’ है । मैं हूँ, तू है, यह है और वह है‒इन चारोंमें केवल ‘मैं’ के साथ ही ‘हूँ’ है । अगर ‘मैं’ न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ ही रहेगा । तात्पर्य है कि ‘हूँ’ भी वास्तवमें ‘है’ ही है । यह बात अगर साधककी समझमें आ जाय तो बहुत लाभकी बात है ! |