।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                            


आजकी शुभ तिथि–
    आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७८ शुक्रवार

      कल्याणके तीन सुगम मार्ग

मनुष्यको तीन शक्तियाँ प्राप्त हैं‒जाननेकी शक्ति, करनेकी शक्ति और माननेकी शक्ति । जाननेकी शक्ति ज्ञानयोगके लिये, करनेकी शक्ति कर्मयोगके लिये और माननेकी शक्ति भक्तियोगके लिये है । जाननेकी शक्तिका सदुपयोग है‒अपने आपको जानना, करनेकी शक्तिका सदुपयोग है‒सेवा करना और माननेकी शक्तिका सदुपयोग है‒भगवान्‌को मानना ।

वस्तु, शरीर, योग्यता और सामर्थ्य‒ये चारों ही चीजें जड़-विभागमें हैं । चेतन-विभाग (स्वरूप)-तक ये चीजें पहुँचती ही नहीं । इसलिये वस्तु, शरीर, योग्यता और सामर्थ्य संसारके हैं और संसारके ही काम आते हैं, अपने काम किंचिन्मात्र भी नहीं आते । जड़-विभाग अर्थात्‌ शरीर-संसारके द्वारा हमें कुछ भी नहीं मिलता, हमारी किंचिन्मात्र भी पुष्टि नहीं होती, हित नहीं होता । शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद ही हमारे काम आता है, हमारे लिये हितकारी होता है । इसलिये शरीर-संसारकी सहायतासे कोई भी मनुष्य बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता । शरीरके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ शरीर-संसारके ही काम आती हैं । उसका सम्बन्ध-विच्छेद ही स्वयंके काम आता है ।

कुछ करनेसे हमारेको लाभ होगा‒ऐसा सोचना भूल है । कारण कि मात्र क्रियाएँ जड़ तथा नाशवान्‌ हैं और स्वयं चेतन तथा अविनाशी है । जड़ वस्तुके द्वारा चेतनको क्या मिलेगा ? नाशवान्‌ वस्तुसे अविनाशीको क्या लाभ होगा ? जड़ और नाशवान्‌ क्रियासे हमारा भला होनेवाला नहीं है । इसलिये हमारा न कर्म करनेसे कोई मतलब होना चाहिये और न तो कर्म नहीं करनेसे कोई मतलब होना चाहिये‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३/१८) । ‘करना’ और ‘न करना’‒दोनों प्रकृति (जड़-विभाग)-में हैं और अभावरूप हैं । स्वयं (चेतन-विभाग)-में ‘करना’ और ‘न करना’ दोनों ही नहीं हैं, प्रत्युत वह दोनोंको प्रकाशित करनेवाला भावरूप निरपेक्ष तत्त्व है । जैसे ‘करने’ से शरीरको परिश्रम होता है, ऐसे ही ‘न करने’ से अर्थात्‌ सुषुप्तिसे शरीरको विश्राम मिलता है, स्वयंको नहीं । स्वयंको विश्राम तो स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंके सम्बन्ध-विच्छेदसे ही मिलेगा ।

साधकको गहरे उतरकर समझना चाहिये कि मैं स्थूलशरीर नहीं हूँ, सूक्ष्मशरीर भी नहीं हूँ और कारणशरीर भी नहीं हूँ । वस्तु, योग्यता, बल आदि कुछ भी मेरा नहीं है । ये सब परिवर्तनशील हैं । मेरा स्वरूप अपरिवर्तनशील सत्तामात्र है । उसमें आना-जाना नहीं होता । उसमें उत्पत्ति-विनाश नहीं होता । वह ज्यों-का-त्यों रहता है । ऐसा समझकर साधक अपने सत्तामात्र स्वरूप (होनेपन)-में स्थित होकर चुप हो जाय ।

सत्तामें अर्थात्‌ हमारे होनेपनमें मैंपन नहीं है । मैंपनका सम्बन्ध भूलसे माना हुआ है । ‘मैं हूँ’‒इसमें ‘मैं’ नहीं है, पर ‘हूँ’ है । हमारा अस्तित्व ‘मैं’ के बिना है । ‘है’-रूपसे एक परमात्मा ही सब जगह परिपूर्ण है । उस ‘है’ का अंश ही ‘हूँ’ है । मैं हूँ, तू है, यह है और वह है‒इन चारोंमें केवल ‘मैं’ के साथ ही ‘हूँ’ है । अगर ‘मैं’ न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ ही रहेगा । तात्पर्य है कि ‘हूँ’ भी वास्तवमें ‘है’ ही है । यह बात अगर साधककी समझमें आ जाय तो बहुत लाभकी बात है !