जगत्की सत्ता ‘मैं’ के कारण ही है । जगत् ‘मैं’ से ही
पैदा होता है । जीवमें जो अहंभाव है, उसीसे यह जगत् प्रतीत होता है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७/५) । इसलिये जगत् न तो
परमात्माकी दृष्टिमें है, न जीवन्मुक्त महात्माकी दृष्टिमें है, प्रत्युत जीवकी
दृष्टिमें है । हमारा जो होनापन है, उसमें मैंपन नहीं है । मैंपन जड़-विभागमें है,
जबतक हमारा सम्बन्ध जड़ताके साथ है, तबतक जन्म-मरण है । जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद करके सत्तामात्रमें रहना मुक्ति है । यह मनुष्य है, यह पशु है, यह पक्षी है; यह जलचर है, यह थलचर
है, यह नभचर है; यह ईंट है, यह चुना है, यह पत्थर है‒सबमें ‘है’-पन रहता है ।
परन्तु साथमें ‘मैं’-पन होनेसे बन्धन हो जाता है । तत्त्वज्ञ पुरुषोंकी स्थिति ‘है’
में होती है । यद्यपि सबकी स्थिति ‘है’ में ही है, पर जड़ताके साथ सम्बन्ध माननेसे
‘मैं हूँ’ हो गया । जड़ताका सम्बन्ध न रहे तो ‘मैं हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘मैं
है’ रहेगा । इस स्थितिका नाम जीवन्मुक्ति है । पशु, पक्षी, देवता, राक्षस आदि सभीमें समान रीतिसे जो एक
सत्ता परिपूर्ण है, वह सत्ता परमात्माका स्वरूप है । उस सत्ताको ‘मैं’ के साथ
मिलानेसे जीव हो जाता है, ‘मैं’ से अलग करनेसे मुक्त हो जाता है और भगवान्के साथ
मिला देनेसे भक्त हो जाता है । मनुष्यका खास काम है‒जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद
करना; क्योंकि जड़ताको अपना और अपने लिये माननेसे ही सब अनर्थ हुए हैं । जड़ताको अपना और अपने लिये मानेंगे तो फिर जड़ता ही रहेगी,
चिन्मयता नहीं आयेगी । इसलिये शरीरको संसारकी सेवामें
लगाना है । केवल मनुष्ययोनि ही सेवा करनेके योग्य है । दूसरा कोई सेवा करनेके लिये
है ही नहीं । दूसरी योनियोंसे सेवा ले सकते हैं, पर वे सेवा कर नहीं सकतीं
। पेड़-पौधोंको हम अपने काममें ले सकते हैं,
पर वे खुद हमारा काम नहीं कर सकते । जो सेवा नहीं
कर सकता, वह मनुष्यतासे गिर जाता है और पशुतामें चला जाता है । इसलिये मनुष्यको
चाहिये कि वह संसारसे मिली हुई वस्तुको संसारकी सेवामें लगा दे और बदलेमें कुछ
चाहे नहीं । संसारकी चीज संसारको दे दी तो चाहना किस बातकी ? संसारकी चीज संसारकी सेवामें लगा दे‒यह कर्मयोग हो गया । स्वयं
संसारसे अलग होकर चिन्मयतामें स्थित हो जाय‒यह ज्ञानयोग हो गया । स्वयं भगवान्में
लग जाय‒यह भक्तियोग हो गया ।
शरणागतिमें न तो सांसारिक दीनता है और न पराधीनता ही है ।
कारण कि भगवान् ‘पर’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘स्वकीय’ हैं । प्रकृति तथा उसका कार्य
‘पर’ है । अतः प्रकृति तथा उसका कार्य (क्रिया और पदार्थ)-की अधीनतामें ही
पराधीनता है । जैसे, माता-पिताके भक्त पुत्रमें माता-पिताकी पराधीनता नहीं होती,
प्रत्युत कर्तव्यका पालन होता है; क्योंकि माता-पिता ‘पर’ नहीं हैं, प्रत्युत
‘निज’ (अपने) हैं । सांसारिक दीनतामें तो कुछ लेनेका भाव रहता है, पर शरणागतिमें कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत अपने-आपको देना है ।
भगवान्का अंश होनेके कारण जीव सदासे ही भगवान्का है । भगवान्के
साथ इस नित्य सम्बन्धकी स्मृति ही शरणागति है । |