भगवान्ने अपनेको भक्तोंके पराधीन कहा है‒‘अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज’ (श्रीमद्भा॰९/४/६३) । यह प्रेमकी विलक्षणता है । भगवान् प्रेमके भूखे हैं । वास्तवमें भगवान्
पराधीन नहीं हैं, प्रत्युत पराधीनताकी तरह (इव)
हैं । पराधीनता वहाँ होती है, जहाँ भेद हो । भक्तिमें
भेद मिटकर भगवान् तथा भक्तमें अभिन्नता हो जाती है, फिर पराधीनताका प्रश्न ही
पैदा नहीं होता । जब ‘पर’ (क्रिया और पदार्थ)-का सम्बन्ध सर्वथा मिट जाता
है, तब भगवान्में प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है । प्रेममें
न तो कोई दूसरा है, न कोई पराया है । अतः प्रेममें पराधीनताकी गन्ध भी नहीं है । भक्तियोग साध्य है । ज्ञानयोग तथा कर्मयोग साधन हैं । संसारके बन्धन (जन्म-मरण)-से छूटनेका नाम मुक्ति है
। ज्ञानयोग तथा कर्मयोगसे
मुक्ति होती है[*] । भक्तियोगमें मुक्तिके साथ-साथ प्रेमकी भी प्राप्ति होती
है । इसलिये भक्तियोग विशेष है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! ‒ ‘कल्याणके तीन सुगम मार्ग’ पुस्तकसे
[*] भगवान्ने ज्ञानयोग और कर्मयोगको समकक्ष कहा है‒ साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः । एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्
॥ यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ (गीता ५/४-५) ‘बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फलवाले कहते
हैं, न कि पण्डितजन; क्योंकि इन दोनोंमेंसे एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित
मनुष्य दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त कर लेता है ।’ ‘सांख्ययोगियोंके द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है,
वह कर्मयोगीयोंके द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है । अतः जो मनुष्य सांख्ययोग
और कर्मयोगको फलरूपमें एक देखता है, वही ठीक देखता है ।’ |