।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                               


आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७८ सोमवार

   मैंपनसे रहित स्वरूपका अनुभव

प्रत्येक साधकके लिये निर्मम और निरहंकार होना बहुत आवश्यक है । कारण कि ‘मैं’ और ‘मेरा’ ही माया है, जिससे जीव बँधता है‒

मैं  अरु  मोर   तोर  तैं  माया ।

जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥

(मानस, अरण्य १५/२)

मैं-मेरे  की  जेवरी,   गल  बँध्यो  संसार ।

दास कबीरा क्यों बँधे, जाके राम अधार ॥

श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान्‌ने कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों ही योगमार्गोमें निर्मम और निरहंकार होनेकी बात कही है‒कर्मयोगमें ‘निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति’ (२/७१), ज्ञानयोगमें ‘अहंकार.....विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते’ (१८/५३) और भक्तियोगमें ‘निर्ममो निरहंकारः समदुखःसुखः क्षमी’ (१२/१३)इस विषयमें साधकोंके लिये एक विशेष ध्यान देनेकी बात है कि वास्तवमें हमारा स्वरूप अहंता (मैंपन) से रहित है । अहंता (मैंपन) और ममता (मेरापन)‒दोनों अपने स्वरूपमें मानी हुई हैं, वास्तविक नहीं हैं । अगर ये वास्तविक होतीं तो हम कभी निर्मम और निरहंकार नहीं हो सकते और भगवान्‌ भी निर्मम और निरहंकार होनेकी बात नहीं कहते । परन्तु हम निर्मम और निरहंकार हो सकते हैं, तभी भगवान्‌ ऐसा कहते हैं ।

‘मैं’ क्या है ?

प्रत्येक मनुष्यका यह अनुभव है कि ‘मैं हूँ’ । ‘मैं हूँ’ ही चिज्जड़ग्रन्थि है । यद्यपि इसमें ‘मैं’ कि मुख्यता प्रतीत होती है और ‘हूँ’ उसका सहायक प्रतीत होता है, तथापि वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो मुख्यता ‘हूँ’ (सत्ता) की ही है, ‘मैं’ की नहीं । कारण कि ‘मैं’ तो बदलता है, पर ‘हूँ’ नहीं बदलता । जैसे, ‘मैं बालक हूँ; मैं जवान हूँ; मैं बूढ़ा हूँ; मैं रोगी हूँ; मैं निरोग हूँ’‒इनमें ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला । ‘हूँ’ प्रकृतिसे अतीत परमात्माका अंश है । यह ‘हूँ’ सत्ताका वाचक है । ‘मैं’ साथमें होनेसे ही यह ‘हूँ’ है । अगर ‘मैं’ साथमें न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । वह ‘है’ सर्वदेशीय है । ‘मैं’ के कारण ही एकदेशीय ‘हूँ’ का भान होता है ।

मैं, तू, यह और वह‒इन चारोमें केवल ‘मैं’ के साथ ही ‘हूँ’ है, शेष तीनोंके साथ ‘है’ है; जैसे‒तू है, यह है और वह है । अनादिकालसे चले आये अनन्त प्राणियोंको हम ‘है’ कह सकते हैं कि ‘ये प्राणी हैं’ । पृथ्वी, स्वर्ग, नरक, पाताल आदि सभी लोकोंको ‘है’ कह सकते हैं । सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग‒चारों युगोंको ‘है’ कह सकते हैं । परन्तु ‘मैं’ कहनेवाला एक ही है । आजकलकी भाषामें सब-के-सब वोट ‘है’ के ही हैं, ‘मैं’ का केवल एक ही वोट है !

‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चिन्मय सत्ता है । ‘मैं’ और ‘हूँ’‒दोनोंका एक हो जाना, घुल-मिल जाना तादात्मय (चिज्जड़ग्रन्थि) है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि हम नित्य-निरन्तर रहनेवाले आनन्दको भी चाहते हैं और नाशवान्‌ भोग तथा संग्रहको भी चाहते हैं । ये दो विभाग ‘मैं’ और ‘हूँ’ के तादात्मयके कारण ही हैं ।