प्रत्येक साधकके लिये निर्मम और निरहंकार होना बहुत आवश्यक
है । कारण कि ‘मैं’ और ‘मेरा’ ही माया है, जिससे जीव बँधता है‒ मैं अरु मोर
तोर तैं माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥ (मानस, अरण्य॰ १५/२) मैं-मेरे की जेवरी,
गल बँध्यो संसार । दास कबीरा क्यों बँधे, जाके राम अधार ॥ श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान्ने कर्मयोग, ज्ञानयोग और
भक्तियोग‒तीनों ही
योगमार्गोमें निर्मम और निरहंकार होनेकी बात कही है‒कर्मयोगमें ‘निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति’ (२/७१), ज्ञानयोगमें
‘अहंकार.....विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते’
(१८/५३) और भक्तियोगमें ‘निर्ममो निरहंकारः
समदुखःसुखः क्षमी’ (१२/१३) । इस विषयमें साधकोंके
लिये एक विशेष ध्यान देनेकी बात है कि वास्तवमें हमारा स्वरूप अहंता (मैंपन) से
रहित है । अहंता (मैंपन) और ममता (मेरापन)‒दोनों अपने स्वरूपमें मानी हुई हैं,
वास्तविक नहीं हैं । अगर ये वास्तविक होतीं तो हम कभी निर्मम और निरहंकार
नहीं हो सकते और भगवान् भी निर्मम और निरहंकार होनेकी बात नहीं कहते । परन्तु हम
निर्मम और निरहंकार हो सकते हैं, तभी भगवान् ऐसा कहते हैं । ‘मैं’ क्या है ? प्रत्येक मनुष्यका यह अनुभव है कि ‘मैं हूँ’ । ‘मैं हूँ’ ही चिज्जड़ग्रन्थि है । यद्यपि इसमें ‘मैं’ कि
मुख्यता प्रतीत होती है और ‘हूँ’ उसका सहायक प्रतीत होता है, तथापि वास्तविक
दृष्टिसे देखा जाय तो मुख्यता ‘हूँ’ (सत्ता) की ही है, ‘मैं’ की नहीं । कारण कि
‘मैं’ तो बदलता है, पर ‘हूँ’ नहीं बदलता । जैसे, ‘मैं बालक हूँ; मैं जवान हूँ; मैं
बूढ़ा हूँ; मैं रोगी हूँ; मैं निरोग हूँ’‒इनमें ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं
बदला । ‘हूँ’ प्रकृतिसे अतीत परमात्माका अंश है । यह ‘हूँ’ सत्ताका वाचक है ।
‘मैं’ साथमें होनेसे ही यह ‘हूँ’ है । अगर ‘मैं’ साथमें न रहे तो ‘हूँ’ नहीं
रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । वह ‘है’ सर्वदेशीय है । ‘मैं’ के कारण ही एकदेशीय
‘हूँ’ का भान होता है । मैं, तू, यह और वह‒इन चारोमें केवल ‘मैं’ के साथ ही ‘हूँ’
है, शेष तीनोंके साथ ‘है’ है; जैसे‒तू है, यह है और वह है । अनादिकालसे चले आये
अनन्त प्राणियोंको हम ‘है’ कह सकते हैं कि ‘ये प्राणी हैं’ । पृथ्वी, स्वर्ग, नरक,
पाताल आदि सभी लोकोंको ‘है’ कह सकते हैं । सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और
कलियुग‒चारों युगोंको ‘है’ कह सकते हैं । परन्तु ‘मैं’ कहनेवाला एक ही है । आजकलकी
भाषामें सब-के-सब वोट ‘है’ के ही हैं, ‘मैं’ का केवल एक ही वोट है !
‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चिन्मय सत्ता है । ‘मैं’
और ‘हूँ’‒दोनोंका एक हो जाना, घुल-मिल जाना तादात्मय (चिज्जड़ग्रन्थि) है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि हम नित्य-निरन्तर रहनेवाले
आनन्दको भी चाहते हैं और नाशवान् भोग तथा संग्रहको भी चाहते हैं । ये दो विभाग
‘मैं’ और ‘हूँ’ के तादात्मयके कारण ही हैं । |