।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                


आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७८ मंगलवार

मैंपनसे रहित स्वरूपका अनुभव

हम सदा रहना (जीना) चाहते हैं तो यह इच्छा न तो उसमें होती है, जो सदा नहीं रहता और न उसमें ही होती है, जो सदा रहता है । यह इच्छा उसमें होती है, जो सदा रहता है, पर उसमें मृत्युका भय आ गया । मृत्युका भय जड़ताके संगसे आता है; क्योंकि जड़ता नाशवान्‌ है, चिन्मय सत्ता अविनाशी है । तात्पर्य है कि चिन्मय सत्ता (‘है’) में ‘मैं’ मिलानेसे ही जीनेकी इच्छा होती है । अतः जीनेकी इच्छा न ‘मैं’ में है और न ‘हूँ’ में है, प्रत्युत ‘मैं हूँ’‒इस तादात्मयमें है । इस तादात्मयके कारण ही मनुष्यमें भोगेच्छा और जिज्ञासा (मुमुक्षा) दोनों रहती हैं ।

‘मैं हूँ’‒इन दोनोंमें हम ‘मैं’ को प्रधानता देंगे तो संसार (भोग और संग्रह)-की इच्छा हो जायगी और ‘हूँ’ को प्रधानता देंगे तो परमात्मा (मोक्ष)-की इच्छा हो जायगी । जब ‘मैं’ से माना हुआ सम्बन्ध अर्थात्‌ तादात्मय मिट जायगा, तब संसारकी इच्छा मिट जायगी और परमात्माकी इच्छा पूरी हो जायगी । कारण कि संसार अपूर्ण है, इसलिये उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती और परमात्मा पूर्ण हैं, इसलिये उनकी इच्छा कभी अपूर्ण नहीं होती अर्थात्‌ पूरी ही होती है । भोगेच्छा हो अथवा मुमुक्षा हो, इच्छामात्र जड़के सम्बन्ध (तादात्म्य)-से ही होती है । तादात्मय मिटते ही हम जीवन्मुक्त हो जाते हैं । वास्तवमें हम जीवन्मुक्त तो पहलेसे ही हैं, पर ‘मैं’ के साथ अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मान लेनेसे जीवन्मुक्तिका अनुभव नहीं होता । इसलिये जो नित्यप्राप्त है, उसीकी प्राप्ति होती है
और जो नित्यनिवृत्त है, उसीकी निवृत्ति होती है ।

हमारा अनुभव

प्रश्न‒‘मैं’ अलग है और ‘हूँ’ अलग है‒इसका अनुभव कैसे करें ?

उत्तर‒यह तो हम सबके अनुभवकी बात है । जाग्रत्‌ और स्वप्नमें तो हमारा व्यवहार होता है, पर सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा)-में कोई व्यवहार नहीं होता । कारण कि सुषुप्ति-अवस्थामें मैंपन लीन होनेपर भी हमारी सत्ता रहती है । इसीलिये सुषुप्तिसे जगनेपर हम कहते हैं कि ‘मैं ऐसे सुखसे सोया कि मेरेको कुछ पता नहीं था’ तो ‘कुछ भी पता नहीं था’‒इसका पता तो था ही ! नहीं तो कैसे कहते कि कुछ भी पता नहीं था ? इससे सिद्ध हुआ कि जाग्रत्‌ और स्वप्नमें मैंपन जाग्रत्‌ रहनेपर भी हमारी सत्ता है तथा सुषुप्तिमें मैंपन जाग्रत्‌ न रहनेपर भी हमारी सत्ता है । अतः हम मैंपनसे अलग न होते, अहंकाररूप ही होते तो सुषुप्तिमें मैंपनके लीन होनेपर हम भी नहीं रहते[*]अतः मैंपनके बिना भी हमारा होनापन सिद्ध होता है ।

हम अहम्‌ (‘मैं’)-के भाव और अभाव‒दोनोंको जानते हैं, पर अपने अभावको कभी कोई नहीं जानता; क्योंकि हमारी सत्ताका अभाव कभी होता ही नहीं‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । असत्‌ वस्तु अहम्‌के भाव और अभावको प्रकाशित करनेवाली हमारी सत्ता निरन्तर रहती है ।



[*] सुषुप्तिमें मैंपन मिटता नहीं है, प्रत्युत लीन होता है और निद्राके मिटनेपर (जाग्रत्‌-अवस्थामें आनेपर) वह पुनः प्रकट हो जाता है । परन्तु तत्त्वज्ञान होनेपर मैंपन मिट जाता है ।