।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                 


आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७८ बुधवार

मैंपनसे रहित स्वरूपका अनुभव

जैसे, कल हम जाग्रत्‌में थे, रात्रिमें स्वप्न अथवा गाढ़ निद्रा आ गयी और आज पुनः जाग्रत्‌में हैं तो जाग्रत्‌ और स्वप्नमें अहम्‌के भावका अनुभव हटा है, पर गाढ़ निद्रामें अहम्‌के अभावका अनुभव होता है । जाग्रत्‌ आदि अवस्थाएँ निरन्तर नहीं रहतीं‒यह हमारा अनुभव है । अतः हमारा स्वरूप अहम्‌ तथा अवस्थाओंके भाव और अभावको प्रकाशित करनेवाला अलुप्त प्रकाश है । इसीलिये हम कहते हैं कि कल जो मैं जागता था, वही आज जागता हूँ और वही स्वप्न तथा सुषुप्तिमें था । तात्पर्य है कि तीनों अवस्थाओंमें हमें अखण्डरूपसे अपनी सत्ताका अनुभव होता है । इसी तरह हम किसी भी योनिमें जायँ, हमारी अहंता तो बदलती है, पर हम नहीं बदलते । जैसे पहले हम कहते थे कि ‘मैं बालक हूँ’, फिर हम कहने लगे कि ‘मैं जवान हूँ’ और अब हम कहते हैं कि ‘मैं वृद्ध हूँ’ तो बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था तो अलग-अलग हुए, पर उनमें हमारी सत्ता एक ही रही अर्थात्‌ अवस्थाओंके बदलनेपर भी हमारी सत्ता नहीं बदलती । ऐसे ही जीव मनुष्यशरीरमें आनेपर ‘मैं मनुष्य हूँ’ ऐसा मानता है, देवता बननेपर ‘मैं देवता हूँ’ ऐसा मानता है, पशु बननेपर ‘मैं पशु हूँ’ ऐसा मानता है, भूत-प्रेत बननेपर ‘मैं भूत-प्रेत हूँ’ ऐसा मानता है, आदि-आदि । इससे सिद्ध होता है कि देहान्तरकी प्राप्ति होनेपर अहंता तो बदल जाती है, पर हमारी सत्ता नहीं बदलती

इस प्रकार सुषुप्तिमें अहंकारके अभावका और अवस्थाओं तथा देहान्तरकी प्राप्तिमें अहंकारके परिवर्तनका अनुभव तो सबको होता है, पर अपनी सत्ताके अभाव और परिवर्तनका अनुभव कभी किसीको हुआ नहीं, हो सकता नहीं । इससे सिद्ध हुआ कि अहंकार (मैंपन) हमारा स्वरूप नहीं है । हमारेसे गलती यह होती है कि हम अपने इस अनुभवका आदर नहीं करते, इसको महत्त्व नहीं देते । अगर हम इस अनुभवको महत्त्व दें तो अनादिकालसे अहंकारके साथ अपनेपनके जो संस्कार भीतर पड़े हैं, वे संस्कार अपने-आप कम होते-होते मिट जायँगे ।

हमारा स्वरूप

हमारा स्वरूप सत्तामात्र है । उस सत्तामें मैं-तू-यह-वहका भेद नहीं है । मैं, तू, यह और वह‒ये चारों प्राकृत हैं और स्वरूप प्रकृतिसे अतीत है । ये चार हैं और सत्ता एक है । ये चारों अनित्य हैं और सत्ता नित्य है । ये चारों सापेक्ष हैं और सत्ता निरपेक्ष है । ये चारों प्रकाश्य हैं और सत्ता प्रकाशक है । ये चारों आधेय हैं और सत्ता आधार है । ये चारों जाननेमें आनेवाले हैं और सत्ता जाननेवाली है । इन चारोंका परिवर्तन तथा अभाव होता है और सत्ताका कभी परिवर्तन तथा अभाव नहीं होता । इसलिये इन चारोंके बदलनेका, आने-जानेका, भाव-अभावका, उत्पन्न-नष्ट होनेका तो अनुभव होता है, पर अपने बदलनेका, आने-जानेका, भाव-अभावका, उत्पन्न-नष्ट होनेका अनुभव कभी किसीको नहीं होता ।