।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                   


आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७८ शुक्रवार

मैंपनसे रहित स्वरूपका अनुभव

 

मैंपनको मिटानेका उपाय

‘मैंपन कैसे मिटे ?’ यह प्रश्न यदि हरदम जाग्रत्‌ रहे तो अहंकार मिट जायगा । वास्तवमें अहंकार मिटा हुआ ही है । परन्तु सच्ची और उत्कट लगन न होनेके कारण इसका अनुभव नहीं हो रहा है । एक सन्तके चरित्रमें आया है कि गरमीका समय था, जोरसे प्यास लग रही थी और कमण्डलुमें ठण्डा जल भी पासमें रखा था; परन्तु लगन लगी थी कि जबतक अनुभव नहीं होगा, तबतक पानी नहीं पीऊँगा ! ऐसी लगन लगते ही चट अनुभव हो गया ! ऐसा अनुभव एक बार हो जायगा तो फिर वह सदाके लिये, युग-युगान्तरके लिये हो जायगा‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव’ (गीता ४/३५) ।

अहंकारको मिटानेके तीन उपाय बताये गये हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगमें निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवा करें, दूसरोंको सुख पहुँचाएँ तो अपने भोग और संग्रहकी इच्छा मिट जायगी । भोगेच्छा सर्वथा मिटनेपर अहंकार नष्ट हो जायगा; क्योंकि भोगेच्छापर ही अहंकार टिका हुआ है । ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा यह समझें कि असत्‌के साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है, प्रत्युत हमारा सम्बन्ध सर्वव्यापक सत्‌-स्वरूपके साथ है । ऐसा समझकर सत्‌-स्वरूपका अनुभव कर लें तो अहंकार नष्ट हो जायगा । भक्तियोगमें ‘भगवान्‌ ही मेरे हैं, संसार मेरा नहीं है’‒ऐसा मानकर संसारसे विमुख और भगवान्‌के सम्मुख हो जायँ तो अहंकार नष्ट हो जायगा । कर्मयोगमें अहंकार शुद्ध होता है, ज्ञानयोगमें अहंकार मिटता है और भक्तियोगमें अहंकार बदलता है । शुद्ध होना, मिटना और बदलना‒तीनोंका परिणाम एक (अभाव) ही है ।

अहंकार अनित्य और परिवर्तनशील है‒यह सबका अनुभव है । एक दिनमें कई बार अहंकार बदलता है । बापके सामने हम कहते हैं कि मैं बेटा हूँ और बेटेके सामने कहते हैं कि मैं बाप हूँ । अगर हमसे कोई पूछे कि आप एक बात बताओ कि आप बाप हो या बेटा हो तो हम क्या बताएँगे ? एक बात सच्ची हो तो बतायें ! इस बनावटीपनको छोड़कर जब हम वास्तविकताको देखेंगे तभी सच्ची बात मिलेगी । हम माँके सामने बेटे बन जाते हैं, बहनके सामने भाई बन जाते हैं, स्त्रीके सामने पति बन जाते हैं‒यह जो हमारा बहुरूपियापना है अर्थात्‌ बदलनेवालेको सत्य मानना है, यही अहंकारके मिटनेमें बाधक है । वास्तवमें हम न बाप हैं, न बेटे हैं, न भाई हैं, न पति हैं, प्रत्युत इन सबमें रहनेवाली एक सत्ता हैं । वह सत्ता हमारा स्वरूप है । अगर अपना स्वरूप बाप होता तो वह कभी बेटा नहीं बनता और बेटा होता तो कभी बाप नहीं बनता । परन्तु बेटेके सामने वह कहता है कि मैं बाप हूँ और बापके सामने कहता है कि मैं बेटा हूँ तो यह सापेक्ष अहंवृत्ति है, जो केवल व्यवहारके लिये है । अहंवृत्ति कर्ता नहीं है, प्रत्युत करण है । कर्ता अहंकार है । खाता हूँ, पिता हूँ, बोलता हूँ आदि सामान्य क्रियाएँ ‘अहंवृत्ति’ से होती हैं, पर अहंकार सब क्रियाओंमें निरन्तर रहता है । उन क्रियाओंको लेकर जब हम अपनेमें कोई विशेषता देखते हैं, तब अभिमान हो जाता है; जैसे‒मैं धनवान्‌ हूँ, मैं विद्वान्‌ हूँ, मैं व्याख्यानदाता हूँ आदि ।