।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                          


आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७८ शुक्रवार

साधक कौन ?

ज्ञानमार्गमें पहले साधक समझता है, फिर वह मान लेता है । भक्तिमार्गमें पहले मानता है, फिर समझ लेता है । तात्पर्य है कि ज्ञानमें विवेक मुख्य है और भक्तिमें श्रद्धा-विश्वास । ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्गमें यही फर्क है । दोनों मार्गोंमें एक-एक विलक्षणता है । ज्ञानमार्गवाला साधक तो आरम्भसे ही ब्रह्म हो जाता है, ब्रह्मसे नीचे उतरता ही नहीं, पर भक्त सिद्ध हो जानेपर, परमात्माकी प्राप्ति हो जानेपर भी ब्रह्म नहीं होता, प्रत्युत ब्रह्म ही उसके वशमें हो जाता है ! गोस्वामी महाराजने सब ग्रन्थ लिखनेके बाद अन्तमें विनयपत्रिकाकी रचना की । उसमें वे छोटे बच्चेकी तरह सीता माँसे कहते हैं‒

कबहुँक अंब, अवसर पाइ ।

मेरिऔ सुधि द्याइबी,  कछु करुन-कथा चलाइ ॥१॥

दीन, सब अँगहीन, छीन, मलिन, अघी अघाइ ।

नाम  लै  भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ॥२॥

बुझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ ।

सुनत राम कृपालु के मेरी बिगरिऔ बनि जाइ ॥३॥

जानकी जगजननि जन की किये बचन सहाइ ।

तरै  तुलसीदास  भव तव  नाथ-गुन-गन  गाइ ॥४॥

तात्पर्य है कि सिद्ध, भगवत्प्राप्त होनेपर भी भक्त अपनेको सदा छोटा ही समझते हैं । वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो ऐसे भक्त ही वास्तवमें ज्ञानी हैं । गीतामें भी भगवान्‌ने गुणातीत महापुरुषको ज्ञानी नहीं कहा, प्रत्युत अपने भक्तको ही ज्ञानी कहा है (गीता ७/१६‒१८) । भगवान्‌ने ज्ञानमार्गीको ‘सर्ववित्’ कहा है‒‘स सर्वविद्-भजति मां सर्वभावेन भारत’ (गीता १५/१९) । गोस्वामीजी महाराजने कहा है‒

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।

अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥

(मानस, उत्तर४९/३)

भक्तिके बिना भीतरका सूक्ष्म मल (अहम्‌) मिटता नहीं । वह मल मुक्तिमें तो बाधक नहीं होता, पर दार्शनिकों और उनके दर्शनोंमें मतभेद पैदा करता है । जब वह सूक्ष्म मल मिट जाता है, तब मतभेद नहीं रहता । इसलिये भक्त ही वास्तविक ज्ञानी है ।

शरीर हमारा स्वरूप नहीं है । शरीर पृथ्वीपर ही (माँके पेटमें) बनता है, पृथ्वीपर ही घूमता-फिरता है और मरकर पृथ्वीमें ही लीन हो जाता है । इसकी तीन गतियाँ बतायी गयी हैं‒या तो इसकी भस्म हो जायगी, या मिट्टी हो जायगी, या विष्ठा हो जायगी । इसको जला देंगे तो भस्म बन जायगी, पृथ्वीमें गाड़ देंगे तो मिट्टी बन जायगी और जानवर खा लेंगे तो विष्ठा बन जायगी । इसलिये शरीरकी मुख्यता नहीं है, प्रत्युत अव्यक्त स्वरूपकी मुख्यता है‒

भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तु सर्वदा ।

यह देह है पोला घड़ा   बनता बिगड़ता है सदा ॥

इसलिये वास्तवमें साधक अव्यक्त होकर ही भगवान्‌का भजन करते हैं ।