एक पाञ्चभौतिक शरीर होता है और एक अव्यक्त भावशरीर होता है
। भजन-ध्यान वास्तवमें भावशरीरसे ही होता है । भजन नाम
प्रेमका है‒‘पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर
आन’ (मानस, अरण्य॰ १०में पाठभेद) । प्रेम भाव-शरीरसे ही होता है । अतः
वास्तवमें अव्यक्तमूर्ति ही भगवान्में प्रेम करता है, भगवान्का भजन करता है, भगवान्में
तल्लीन होता है । उसीको भगवान् मीठे लगते हैं, भगवान्की बात अच्छी लगती है, भगवान्की
लीला अच्छी लगती है, भगवान्का नाम अच्छा लगता है । भगवान्ने कहा है कि यह जीव अनादिकालसे मेरा ही अंश है‒‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (गीता १५/७) । यहाँ ‘मम एव अंशः’ कहनेका तात्पर्य है कि जैसे शरीरमें
माता-पिता दोनोंका अंश है, ऐसे जीवमें प्रकृतिका अंश नहीं है, प्रत्युत केवल मेरा
ही अंश है । प्रकृतिका अंश शरीर तो प्रकृतिमें ही स्थित रहता है, पर जीव
परमात्माका अंश होते हुए भी परमात्मामें स्थित नहीं रहता । वह अपने-आपको संसारमें
स्थित मानता है, भगवान्में स्थित नहीं मानता । वह प्रकृतिमें स्थित
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना स्वरूप मान लेता है‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि
प्रकृतिस्थानि कर्षति’ । इसलिये ‘मैं शरीरसे रहित हूँ’‒यह बात उसकी समझमें
नहीं आती । मनुष्यकी सबसे बड़ी कोई भूल है तो यही है कि
वह प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरको अपना स्थायी रूप मान लेता है ।
भगवान्ने गीताके आरम्भमें शरीर और शरीरी (शरीरवाले)-का
वर्णन किया है, जिसका तात्पर्य साधकमात्रको यह बताना है
कि तुम शरीर नहीं हो । वास्तवमें साधक न शरीर है और न शरीरी ही है । साधकका
स्वरूप सत्तामात्र है, पर समझानेकी दृष्टिसे भगवान्ने स्वरूपको ‘शरीरी’ नामसे कहा
है । कारण कि संसारमें जैसे धनके सम्बन्धसे ‘धनी’ कहलाता है, ऐसे ही शरीरके
सम्बन्धसे स्वरूप ‘शरीरी’ कहलाता है । जैसे धनका सम्बन्ध न रहनेपर धनी (मनुष्य) तो
रहता है, पर उसका नाम ‘धनी’ नहीं रहता, ऐसे ही शरीरका सम्बन्ध न रहनेपर शरीरी
(स्वरूप) तो रहता है, पर उसका नाम ‘शरीरी’ नहीं रहता । इसी तरह एक ही स्वरूप
क्षेत्रके सम्बन्धसे ‘क्षेत्रज्ञ’, दृश्यके सम्बन्धसे ‘दृष्टा’ और साक्ष्यके
सम्बन्धसे ‘साक्षी’ कहलाता है । पर वास्तवमें स्वरूप न
शरीर है, न शरीरी है, न क्षेत्र है, न क्षेत्रज्ञ है; न दृश्य है, न दृष्टा है; न
साक्ष्य है, न साक्षी है, प्रत्युत चिन्मय सत्तामात्र है । |