यहाँ एक बात विशेष समझनेकी है कि जैसे धनके कारण धनी है,
ऐसे शरीरके कारण शरीरी नहीं है । कारण कि जैसे धन और धनी एक जातिके हैं, ऐसे शरीर और शरीरी‒दोनों एक जातिके नहीं हैं । जैसे धनीका
धनमें आकर्षण होता है, ऐसे शरीरीका शरीरमें कभी आकर्षण नहीं होता, प्रत्युत
आकर्षणकी मान्यता होती है । धनीमें तो धनकी मुख्यता होती है, पर शरीरीमें शरीरकी
मुख्यता है ही नहीं । धनके विकार तो धनीमें आते हैं, पर शरीरके विकार शरीरीमें कभी
नहीं आते । इसलिये धनसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर धनी रोता है; पर शरीरसे
सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर शरीरी अखण्ड, अपार, असीम आनन्दका अनुभव करता है । धन और
धनीके विवेकसे मुक्ति नहीं होती, पर शरीर और शरीरीके विवेकसे मुक्ति हो जाती है ।
इसलिये धनके सम्बन्ध-विच्छेदसे धनी मुक्त नहीं होता, प्रत्युत निर्धन अथवा विरक्त
हो जाता है, पर शरीरके सम्बन्ध-विच्छेदसे शरीरी सदाके लिये मुक्त हो जाता है ।
कारण कि शरीर संसारका बीज है । अतः जिसका शरीरके साथ
सम्बन्ध है, उसका संसारमात्रके साथ सम्बन्ध है । शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद
होनेपर संसारमात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । संसारमें हमें दो चीजें दीखती
हैं‒पदार्थ और क्रिया । ये
दोनों ही प्रकृतिका कार्य हैं । साधारण दृष्टिसे हम लोगोंको संसारमें पदार्थ
प्रधान दीखता है, पर वास्तवमें क्रिया प्रधान है, पदार्थ
प्रधान नहीं है । पदार्थमें हरदम परिवर्तन-ही-परिवर्तन होता है तो फिर
क्रिया ही हुई, पदार्थ कहाँ हुआ ? क्रियाका पुंज ही पदार्थरूपसे दीखता है । वह
क्रिया भी बदलनेवाली है । ये क्रिया और पदार्थ प्रकृतिका स्वरूप हैं, हमारा स्वरूप
नहीं हैं । हमारा स्वरूप क्रिया और पदार्थसे रहित ‘अव्यक्त’ है । जैसे हम मकानमें
बैठे हुए हैं तो मकान अलग है, हम अलग हैं । इसलिये हम मकानको छोड़कर चले जाते हैं ।
ऐसे ही हम शरीरमें बैठे हुए हैं । शरीर यहाँ पड़ा रहता है, हम चले जाते हैं । मकान
पीछे रहता है, हम अलग हो जाते हैं तो वास्तवमें हम पहलेसे ही उससे अलग है । ऐसे ही
हम शरीरसे अलग हो जाते हैं तो वास्तवमें हम पहलेसे ही शरीरसे अलग हैं । वास्तवमें हम शरीरमें रहते नहीं हैं, प्रत्युत रहना मान लेते
हैं । इसलिये भगवान्ने कहा है‒‘अविनाशी तु
तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्’ (गीता २/१७) ‘अविनाशी
तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है ।’ तात्पर्य है कि स्वरूप
सर्वव्यापी है, एक शरीरमें सीमित नहीं है‒‘नित्यः
सर्वगतः’ (गीता २/२४) । जबतक वह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक वह
साधक है । शरीरका सम्बन्ध सर्वथा छूटनेपर वह सिद्ध हो जाता है । शास्त्रोंमें आता है कि देव होकर देवका भजन करना चाहिये‒‘देवो भूत्वा यजेद्देवम्’ । इसलिये अव्यक्त होकर ही अव्यक्त परमात्माका भजन करना चाहिये । |