।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                            


आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण अमावस्या, वि.सं.२०७८ रविवार

साधक कौन ?

यहाँ एक बात विशेष समझनेकी है कि जैसे धनके कारण धनी है, ऐसे शरीरके कारण शरीरी नहीं है । कारण कि जैसे धन और धनी एक जातिके हैं, ऐसे शरीर और शरीरी‒दोनों एक जातिके नहीं हैं । जैसे धनीका धनमें आकर्षण होता है, ऐसे शरीरीका शरीरमें कभी आकर्षण नहीं होता, प्रत्युत आकर्षणकी मान्यता होती है । धनीमें तो धनकी मुख्यता होती है, पर शरीरीमें शरीरकी मुख्यता है ही नहीं । धनके विकार तो धनीमें आते हैं, पर शरीरके विकार शरीरीमें कभी नहीं आते । इसलिये धनसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर धनी रोता है; पर शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर शरीरी अखण्ड, अपार, असीम आनन्दका अनुभव करता है । धन और धनीके विवेकसे मुक्ति नहीं होती, पर शरीर और शरीरीके विवेकसे मुक्ति हो जाती है । इसलिये धनके सम्बन्ध-विच्छेदसे धनी मुक्त नहीं होता, प्रत्युत निर्धन अथवा विरक्त हो जाता है, पर शरीरके सम्बन्ध-विच्छेदसे शरीरी सदाके लिये मुक्त हो जाता है । कारण कि शरीर संसारका बीज है । अतः जिसका शरीरके साथ सम्बन्ध है, उसका संसारमात्रके साथ सम्बन्ध है । शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर संसारमात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है ।

संसारमें हमें दो चीजें दीखती हैं‒पदार्थ और क्रिया । ये दोनों ही प्रकृतिका कार्य हैं । साधारण दृष्टिसे हम लोगोंको संसारमें पदार्थ प्रधान दीखता है, पर वास्तवमें क्रिया प्रधान है, पदार्थ प्रधान नहीं है । पदार्थमें हरदम परिवर्तन-ही-परिवर्तन होता है तो फिर क्रिया ही हुई, पदार्थ कहाँ हुआ ? क्रियाका पुंज ही पदार्थरूपसे दीखता है । वह क्रिया भी बदलनेवाली है । ये क्रिया और पदार्थ प्रकृतिका स्वरूप हैं, हमारा स्वरूप नहीं हैं । हमारा स्वरूप क्रिया और पदार्थसे रहित ‘अव्यक्त’ है । जैसे हम मकानमें बैठे हुए हैं तो मकान अलग है, हम अलग हैं । इसलिये हम मकानको छोड़कर चले जाते हैं । ऐसे ही हम शरीरमें बैठे हुए हैं । शरीर यहाँ पड़ा रहता है, हम चले जाते हैं । मकान पीछे रहता है, हम अलग हो जाते हैं तो वास्तवमें हम पहलेसे ही उससे अलग है । ऐसे ही हम शरीरसे अलग हो जाते हैं तो वास्तवमें हम पहलेसे ही शरीरसे अलग हैं । वास्तवमें हम शरीरमें रहते नहीं हैं, प्रत्युत रहना मान लेते हैं । इसलिये भगवान्‌ने कहा है‒‘अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्’ (गीता २/१७) ‘अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है ।’ तात्पर्य है कि स्वरूप सर्वव्यापी है, एक शरीरमें सीमित नहीं है‒‘नित्यः सर्वगतः’ (गीता २/२४) । जबतक वह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक वह साधक है । शरीरका सम्बन्ध सर्वथा छूटनेपर वह सिद्ध हो जाता है ।

शास्त्रोंमें आता है कि देव होकर देवका भजन करना चाहिये‒‘देवो भूत्वा यजेद्देवम्’ । इसलिये अव्यक्त होकर ही अव्यक्त परमात्माका भजन करना चाहिये ।