शरीर तो क्षण-प्रतिक्षण बदलता है, पर साधक क्षण-प्रतिक्षण
बदलनेवाला थोड़े ही है ! क्षण-प्रतिक्षण बदलनेवाला मुक्त कैसे होगा ? नित्य
कैसे होगा ? स्वरूपका विनाश कोई कर सकता ही नहीं‒‘विनाशमव्ययस्यास्य
न कश्चित्कर्तुमर्हति’ (गीता २/१७), पर शरीर नष्ट हुए बिना रहता ही नहीं । जो अविनाशी होता है, वही मुक्त होता
है । विनाशी मुक्त कैसे होगा ? बन्धनका वहम (मोह)
मिट जाय‒इसको मुक्ति कहते हैं । इसलिये एक बार मोह मिटनेपर पुनः मोह नहीं
होता‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४/३५) । कारण
कि मूलमें मोह है नहीं । जो वास्तवमें है नहीं, वही
मिटता है । जो है, वह मिटता ही नहीं । सत्का अभाव नहीं होता और जिसका अभाव
होता है, वह सत् नहीं होता, प्रत्युत असत् होता है‒ नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । (गीता २/१६) शरीर तो भोगायतन है । जैसे रसोईघर भोजन करनेका स्थान है,
ऐसे ही शरीर सुख-दुःख भोगनेका स्थान है । सुख-दुःख भोगनेवाला शरीर नहीं होता । भोगनेका स्थान और होता है, भोगनेवाला और होता है । शरीर तो
ऊपरका चोला है । हम लाल, काला, सफेद आदि कैसा ही कपड़ा पहनें, वह स्वरूप
थोड़े ही होता है ! ऐसे ही स्त्री-पुरुष ऊपरका चोला है । स्वरूप
न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है । परमात्मा, प्रकृति और जीव‒ये तीनों
ही अलिंग हैं । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार‒इन सबके अभावका
अनुभव तो सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको
नहीं होता । जिसके अभावका अनुभव होता है, उससे हम अतीत हैं । हमारी भावरूप
सत्ता हरदम रहती है । सुषुप्तिमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार कुछ भी
नहीं रहता, सब लीन हो जाते हैं । कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं कहता कि सुषुप्तिमें मैं
मर गया था, अब जी गया हूँ । सुषुप्तिमें भी हम रहते हैं, तभी तो हम कहते हैं कि
मैं बड़े सुखसे सोया कि कुछ भी पता नहीं था । सुषुप्तिमें भी हमारा होनापन
ज्यों-का-त्यों था । कारण कि हमारी सत्ता (होनापन) अहंकारके अधीन नहीं है,
बुद्धिके अधीन नहीं है, मनके अधीन नहीं है, इन्द्रियाँके अधीन नहीं है, शरीरके
अधीन नहीं है । हमारी सत्ता स्वतन्त्र है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण सब शरीरोंका
अभाव होता है, पर हमारा अभाव नहीं होता । इसलिये हमारा स्वरूप निराकार है ।
साकाररूप शरीर पीछे बनता है और मिट जाता है । हम निराकाररूपसे हैं, पर शरीररूपसे
अपनेको साकार मानते हैं । यह मूल भूल है । इस भूलका हमें प्रायश्चित्त करना है । प्रायश्चित्त करनेमें तीन बातें हैं‒१.-अपनी भूलको स्वीकार
करें कि अपनेको शरीर मानकर मैंने भूल की । २.-अपनी भूलका पश्चात्ताप करें कि
मनुष्य (साधक) होकर मैंने ऐसी भूल की और ३.-ऐसा निश्चय करें कि अब आगे मैं कभी भूल
नहीं करूँगा अर्थात् अपनेको कभी शरीर नहीं मानूँगा । ये तीन बातें होनेसे
प्रायश्चित्त हो जाता है और साधक अपने वास्तविक अव्यक्त स्वरूपमें स्थित हो जाता
है । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे |