तात्पर्य यह निकला कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़नेवाली है, वह
हमारी नहीं हो सकती । जो वस्तु उत्पन्न और नष्ट होनेवाली है, वह हमारी नहीं हो
सकती । जो वस्तु आने और जानेवाली है, वह हमारी नहीं हो सकती । कारण कि स्वयं
मिलने-बिछुड़नेवाला, उत्पन्न-नष्ट होनेवाला, आने-जानेवाला नहीं है । अतः सिद्ध हुआ कि अनन्त ब्रह्माण्डोंमें तिल-जितनी वस्तु भी
हमारी नहीं है । दूसरी बात है‒मेरेको कुछ नहीं चाहिये । साधकको विचार करना चाहिये कि जब संसारमें कोई वस्तु मेरी है ही
नहीं, तो फिर मेरेको क्या चाहिये ? शरीरको अपना माननेसे ही चाह पैदा होती
है कि हमें रोटी चाहिये, जल चाहिये, कपड़ा चाहिये, मकान चाहिये आदि-आदि । साधक इस
बातपर विचार करे कि शरीरसे अलग होकर मेरेको क्या चाहिये ? तात्पर्य है कि जब साधक इस सत्यको स्वीकार कर लेता है कि मेरा कुछ भी नहीं है,
तब वह इस सत्यको स्वीकार करनेमें समर्थ हो जाता है कि मेरेको कुछ नहीं चाहिये । तीसरी बात है‒मैं कुछ नहीं हूँ । शरीर और संसारको तो सब देखते हैं, पर ‘मैं’ को किसीने नहीं
देखा है । शरीरकी प्रतीति होती है और स्वयंका
अनुभव होता है, पर ‘मैं’ की न तो प्रतीति होती है और न अनुभव ही होता है । ‘मैं’
का भान होता है । जब साधक इस सत्यको स्वीकार कर लेता है कि मेरेको कुछ नहीं
चाहिये, तब वह इस सत्यको स्वीकार करनेमें समर्थ हो जाता है कि ‘मैं’ कुछ नहीं है ।
जिसमें संसारकी ममता और परमात्माकी जिज्ञासा है, उसको
‘मैं’ कह देते हैं, पर वास्तवमें ‘मैं’ कुछ नहीं है । सुषुप्तिमें स्वयं तो
रहता है, पर ‘मैं’ नहीं रहता । सुषुप्तिमें स्वयंके भावका और ‘मैं’ के अभावका
अनुभव सबको होता है । मेरा कुछ नहीं है और मेरेको कुछ नहीं चाहिये‒इन दो बातोंकी
सिद्धि होते ही ‘मैं’ सत्तामात्रमें अर्थात् ‘है’ में विलीन हो जाता है ।
तात्पर्य है कि चेतन-अंश चेतन-तत्त्वमें और जड़-अंश जड़में विलीन हो जाता है । फिर
एक सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं रहता । प्रकृतिका स्वरूप है‒पदार्थ और क्रिया । पदार्थकी उत्पत्ति और विनाश होता है । क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है । शरीरादि पदार्थोंका आश्रय ‘पराश्रय’ है और क्रियाका आश्रय ‘परिश्रम’ है । परमात्मप्राप्तिके लिये क्रिया और पदार्थकी बिलकुल आवश्यकता नहीं है । संसारमें तो ‘करना’ मुख्य है, पर परमात्मामें ‘न करना’ ही मुख्य है । शरीर और संसारकी सहायतासे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । जो तत्त्व सब जगह परिपूर्ण है, उसकी प्राप्ति ‘करने’ से कैसे होगी ? करनेसे तो उलटे वह दूर होगा ! |