।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
       श्रावण शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७८, बुधवार               
  साधक,साध्य तथा साधन

साधकके लिये साध्यमें विश्वास और प्रेम होना बहुत जरूरी है । विश्वास और प्रेम उसी साध्यमें होना चाहिये, जो विवेक-विरोधी न हो । मिलने और बिछुड़नेवाली वस्तुमें विश्वास और प्रेम करना विवेक-विरोधी है । विश्वास और प्रेम‒दोनोंमें कोई एक भी हो जाय तो दोनों स्वतः हो जायँगे । विश्वास दृढ़ हो जाय तो प्रेम अपने-आप हो जायगा । अगर प्रेम नहीं होता तो समझना चाहिये कि विश्वासमें कमी है अर्थात्‌ साध्य (परमात्मा)-के विश्वासके साथ संसारका विश्वास भी है । पूर्ण विश्वास होनेपर एक सत्ताके सिवाय अन्य (संसार)-की सत्ता ही नहीं रहेगी । साध्यमें विश्वासकी कमी होगी तो साधनमें भी विश्वासकी कमी होगी अर्थात्‌ साध्यके सिवाय अन्य इच्छाएँ भी होंगी । जितनी दूसरी इच्छा है, उतनी ही साधनमें कमी है ।

सम्पूर्ण इच्छाओंके मूलमें एक परमात्माकी ही इच्छा है । उसीपर सम्पूर्ण इच्छाएँ टिकी हुई हैं । हमसे भूल यह होती है कि अपनी इस स्वाभाविक (परमात्माकी) इच्छाको हम शरीरकी सहायतासे पूरी करना चाहते हैं । वास्तवमें परमात्माकी प्राप्तिमें शरीर अथवा संसारकी किंचिन्मात्र भी जरूरत नहीं है । परमात्मा अपनेमें हैं; अतः कुछ न करनेसे ही उनका अनुभव होगा । कुछ करनेके लिये तो शरीरकी आवश्यकता है, पर कुछ न करनेके लिये शरीरकी क्या आवश्यकता है ? कुछ देखनेके लिये नेत्रोंकी आवश्यकता है, पर कुछ न देखनेके लिये नेत्रोंकी क्या आवश्यकता है ? हाँ, नामजप, कीर्तन आदि साधन अवश्य करने चाहिये; क्योंकि इनको करनेसे कुछ न करनेकी सामर्थ्य आती है ।

हम परमात्माके अंश हैं, इसलिये हमारा सम्बन्ध परमात्माके साथ ही है । हमारा समबन्ध न तो शरीरके साथ है और न शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध‒इन विषयोंके साथ है । हम परमात्माके हैं‒इस सत्यपर साधकको दृढ़ विश्वास करना चाहिये । अगर विश्वास न कर सके तो भगवान्‌से माँगे । हम शरीर-संसारके हैं‒यह भूल है । भूलको समझनेमें देरी लगती है, पर भूल समझनेपर फिर भूल मिटनेमें देरी नहीं लगती ।

यह नियम है कि परमात्माकी प्राप्ति असत्‌ (पदार्थ और क्रिया)-के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत असत्‌के सम्बन्ध-विच्छेदसे होती है । असत्‌से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये साधकको तीन बातोंको स्वीकार करनेकी आवश्यकता है‒

१.मेरा कुछ भी नहीं है ।

२.मेरेको कुछ नहीं चाहिये ।

३.मैं कुछ नहीं हूँ ।

अब इन तीनों बातोंपर गंभीरतापूर्वक विचार करें । पहली बात है‒मेरा कुछ भी नहीं है । इसको स्वीकार करनेके लिये साधकको इस बातका मनन करना चाहिये कि हम अपने साथ क्या लाये हैं और अपने साथ क्या ले जायँगे ? मनन करनेसे साधकको पता लगेगा कि हम अपने साथ कुछ लाये नहीं और अपने साथ कुछ ले जा सकते नहीं ।