।। श्रीहरिः ।।

                   





आजकी शुभ तिथि–
  भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७८, सोमवार 
 मनुष्य-जन्म ही अन्तिम जन्म है



श्रीकृष्ण-जन्माष्टमीकी हार्दिक बधाई हो !

खाना-पीना, ऐश-आराम तो हरेक शरीरमें हो सकता है । लड़ाई-झगड़ा, आपसमें व्यवहार करना तो हरेक योनिमें हो जाता है; परन्तु यह सब परिवर्तनशील है, रहेगा नहीं, रहनेवाला वह एक तत्त्व है । यह ज्ञान तो मानव-शरीरमें ही है । भगवान्‌ने कृपा करके यह मानव-शरीर दिया है । यह ज्ञान हो जाय तो अन्त हो जाय कि नहीं अगाड़ी जन्मोंका ? यह जन्म स्वतः अन्तिम जन्म है । अब यह जिसमें उलझ जायगा, राग कर लेगा । ‘यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्’ जिस-जिस भावका स्मरण करता हुआ अन्तमें शरीर छोड़ता है, उसी भावको वह प्राप्त हो जाता है । आपकी प्राप्ति कैसे हो ? तो कहते हैं कि मेरा स्मरण करता हुआ जावे तो मेरी प्राप्ति हो जाती है । जो ‘है’ (भगवान्‌) मौजूद, उन्हींका स्मरण करें । ‘नहीं है’ उसका स्मरण क्या करें ? ‘है’ का स्मरण करता हुआ जायगा तो उस ‘है’ की प्राप्ति हो जायगी । अब आपकी मर्जी । चाहो तो अगाड़ी जन्मकी तैयारी करो, स्वतन्त्रता है । अगाड़ी जन्म न लेनेके लिये तो यह मनुष्य-शरीर है ही । कैसी बढ़िया बात है ।

आपके सामने भूत, भविष्य, वर्तमान बदलता है । ठीक-बेठीक, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती रहती है । अब उनमें उलझ जाओ तो आपकी मर्जी, जन्मो और मरो । ये तो ऐसे ही बदलते हैं, इनमें क्या उलझना ? इनमें क्या तो राग करें ? क्या द्वेष करें ? क्या हर्ष करें ? क्या शोक करें ? ये तो यों ही चलता रहता है । हर्ष-शोक,राग-द्वेष, अनुकूल-प्रतिकूल बदलता है कि नहीं सभी ! मैं, तूँ, यह, वह‒सब बदलता है । न बदलनेवालेसे ही बदलना दीखता है । बदलनेवालेसे बदलनेवाला थोड़े ही दीखता है ! आप जानकार हो ! उस जानकारीमें इन सबकी जानकारी होती है । किसीके साथ चिपके नहीं तो स्वतः मुक्ति है । मुक्ति स्वतःसिद्ध है । बाल्यावस्था मिटानेके लिये कुछ उद्योग किया था क्या ? ऐसे संसारमात्रको मिटानेके लिये कोई उद्योग करनेकी जरूरत नहीं है आपको । स्वतः मुक्ति हो रही है । स्वयं नया-नया पकड़ता है, छूटता तो आप-से-आप है । बन्धन आपका बनाया हुआ है । आपकी मर्जी हो तो रखो, चाहे छोड़ दो ।

प्रश्न‒आपने बताया अभी कि ‘गुरुकी’, ‘ग्रन्थकी’ किसीकी जरूरत नहीं है । गुरु बिना ज्ञानकी प्राप्ति ....?

उत्तर‒ज्ञानकी प्राप्ति होती है, पैदा नहीं होता । वह ‘है’, जरूरत उसीकी है । इस संसारको आपने ‘है’ मान लिया, इस वास्ते जरूरत हो गयी । गुरुकी, ग्रन्थोंकी, सन्तकी जरूरत नहीं है । भगवान्‌की कृपासे बढ़कर और कौन चाहिये ? गुरु और शास्त्रको तो आप मानेंगे, तब काम करेंगे, नहीं तो वे क्या काम करेंगे ? भगवान्‌ सब जगह परिपूर्ण मौजूद हैं फिर भी लोग जन्मते-मरते हैं, सब जीव दुःख पा रहे हैं । भगवान्‌ कण-कणमें हैं, पर ‘होना’ क्या काम आया ? आप स्वीकार कर लो तो काम आ गया । इस वास्ते और किसीकी जरूरत नहीं है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे

(यह प्रवचन दि १६.०३.८३ को गोविन्द-भवन, कलकत्तामें हुआ था ।)