आने-जानेवाली सच्ची कहाँ है ? वह तो कच्ची है । उसमें उलझ
जाना गलतीकी बात है । आपने ध्यान दिया कि नहीं
? यह ज्ञान प्रत्यक्ष है । आपको-हमारेको साफ
दीखता है कि जितना संसार है, उथल-पुथल हो रहा है, कोई भी नित्य नहीं है । हरदम
रहनेवाला नहीं है, पर अनित्य भी नित्य
दीखता है; क्योंकि इसमें रहनेवाला नित्य तत्त्व है । अगर वह न हो तो यह
दीखे ही नहीं । ऐसे ही संसार, जो एक क्षण भी स्थिर नहीं, ऐसा क्षणभंगुर भाव है, वह
भी ‘है’ रूपसे दिखता है, उसमें ‘है’ रूपी झलक उस ‘है’ (परमात्मा)-की है, जो इसमें
परिपूर्ण है और वास्तवमें ‘वह’ ही है । इस वास्ते कहा‒‘वासुदेवः
सर्वम्’ ‘सब कुछ परमात्मा ही है ।’ ये
सब कुछ परमात्मा ही है । इसमें ‘यह’ सब कुछ नहीं है, किन्तु उस जगह वही है, जो
वासुदेव है । पहले वही था और अन्तमें वही रहेगा तो मध्यमें दूजा कहाँसे आवे ? विवेक-दृष्टिसे जो रहनेवाला है, उस तत्त्वपर दृष्टि डाल दें ।
मनुष्यमात्रका स्वतःसिद्ध यह धन है । इस वास्ते बहुत-से जन्मोंका यह अन्तिम जन्म
हुआ । मानो यह विवेक स्वतः है । इस
विवेकको पैदा करना नहीं पड़ेगा । यह ज्ञान पैदा नहीं होता है । इस ‘है’ की तरफ केवल
दृष्टि डालना है । गलती यह होती है कि जो नहीं है, उस तरफ दृष्टि डालकर उसका
‘है-पना’ देखते हैं । ‘नहीं’ को सत्ता देते हैं, यह गलती होती है । ‘नहीं’ को
सत्ता न दें । जो ‘है’ उस ‘है’ को सत्ता दें । जो एक क्षण भी स्थिर नहीं, वह
‘सर्वम्’ हुआ और नित्य रहनेवाला तत्त्व ‘वासुदेव’ हुआ । उसको जान लिया तो अब बस आगे जन्मका कोई
कारण नहीं है, क्योंकि गुणोंका संग होनेपर जन्म होता है और गुणोंका संग नहीं करे तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है ही ।
सबसे अतीत तत्त्व स्वतः है और सम्पूर्ण जिस ज्ञानमें प्रकाशित होता है, वह ज्ञान
भी स्वतः है ।
बहुत वर्ष पहलेकी बात है । हम नीमाज (राजस्थान)
रामद्वारेमें बाहर बगीचेसे आये और रामद्वारे दरवाजेमें चढ़कर भीतर आ रहे थे तो उस
समय यह बात याद आयी कि ‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरार्तिनोऽर्जुन’
। ब्रह्मलोकतकके लोग लौटकर आते हैं । इसमें
ब्रह्माजी भी सान्त हो जाते हैं । ब्रह्माजीका कितना बड़ा दिन ! कितनी बड़ी रात ! और
इन रात-दिनोंसे उनकी उम्र कितनी बड़ी है ! वे ब्रह्माजी भी ऐसे उत्पन्न और नष्ट
होते हैं । यह ज्ञान हमारेको होता है । यह ज्ञान कितना बड़ा है ! अनन्त ब्रह्मा
होकर चले गये तो भी वह ज्ञान ज्यों-का-त्यों है । उस
ज्ञानमें स्थित रहनेसे जन्म-मरण कहाँ है ? ज्ञानमें जन्म-मरण नहीं है । उस
ज्ञानको महत्त्व देना है । उसे महत्त्व देनेके लिये ही
मानव-शरीर मिला है और मनुष्य-शरीरमें ही यह ज्ञान हो सकता है । |