शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार करता रहे तो स्वतः
स्वाभाविक ही मुक्ति है और
संसारका नहींपना दीखता है । तात्पर्य, है तो एक
परमात्मा ही; दूजा हैं कहाँ ? ये सब तो नहींमें बदल रहे हैं, प्रत्यक्ष बात
है‒‘अदर्शनादापतिता पुनश्चादर्शनं गता ।’ अदर्शनसे
पैदा हुआ हुआ और फिर अदर्शनमें लीन हो रहा है । यह जितने शरीर हैं, सौ वर्ष पहले
नहीं थे और सौ वर्ष बाद नहीं रहेंगे । जितनी यह सृष्टि है, सर्गसे पहले नहीं थी,
प्रलयके बाद नहीं रहेगी । पहले नहीं थी और पीछे नहीं रहती, बीचमें नहीं होती हुई
भी दीखती है; क्योंकि नहींसे पैदा होकर ‘नहीं’ में लीन हो गयी तो इसमें ‘नहीं’ पना
सत्य रहा । इसका ‘है’ पना सत्य कैसे रहा ? परमात्मा पहले थे और अन्तमें परमात्मा
रहेंगे, बीचमें परमात्मा कहाँ चले गये ? सत्य तत्त्व
सम्पूर्ण अवस्थाओंमें ‘है’ ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है । इसमें कुछ भी फरक नहीं
पड़ता । सृष्टि किंचिन्मात्र भी पैदा नहीं हुई थी, तब वह परमात्मा थे और
सम्पूर्ण सृष्टिका अत्यन्त अभाव हो जाय तो भी परमात्मा रहेंगे । सृष्टिके रहते हुए
भी परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं । केवल उत्पत्ति-विनाशकी तरफ दृष्टि रहनेसे
परमात्माकी तरफ दृष्टि जाती नहीं । उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंमें ही उलझ जाते हैं
। उत्पत्ति-विनाशका जो आधार
है, इनका जो आश्रय है, इनका जो प्रकाशक है, जो उत्पत्ति और विनाशरहित है, उधर
दृष्टि जाती नहीं‒यह बात सच्ची है । इसमें भी एक मार्मिक
बात है कि दृष्टि उधर जाती तो है, पर हम उसको आदरकी दृष्टिसे नहीं देखते ।
साधारण-से-साधारण, ग्रामीण-से-ग्रामीण, अपढ़-से-अपढ़ आदमीके भी ऐसा होता है कि भाई,
ये सदा रहनेवाला नहीं है, पैदा हुआ है तो नष्ट हो जायगा । यह ज्ञान उसको भी है, पर
उस ज्ञानको महत्त्व नहीं देता है । उसका आदर नहीं करता है । इसीसे यह दुर्दशा हो
रही है । केवल उसका आदर करें तो दूजी पढ़ाईकी जरूरत ही
नहीं है । ग्रन्थोंकी जरूरत ही नहीं है । गुरुकी जरूरत ही नहीं है । शिक्षाकी
जरूरत ही नहीं है ।
ठीक तरहसे विचार करें कि ये तो विनाशी है भाई । हम इसमें
कैसे उलझे हैं ! थोड़ा-सा विचार करें तो साफ दीखता है । आप कहते भी हो कि रुपया
क्या है ! रुपयो तो हाथरो मैल है । मानो रुपयोंको आप पैदा करते हो, आपको रुपया
पैदा नहीं करते । आपके सामने वस्तुएँ आती हैं और जाती हैं । वस्तुओंके सामने आप
नहीं आते-जाते हो । आप तो रहते हो । शरीरोंके भी आने-जानेसे आप आते-जाते नहीं हो,
आप रहते हो । शरीरको कपड़ेका दृष्टान्त देकर बताया कि जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर
मनुष्य नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही पुराने शरीरोंको छोड़कर यह जीव नये शरीर धारण कर लेता है । शरीरोंका आना-जाना
है और आपका सदा रहना है, यह ज्ञान है । यह ज्ञान सबको है
। अब इस ज्ञानको आदर नहीं देते, आदरकी दृष्टिसे नहीं देखते । आप बताओ,
सच्ची बात रहनेवाली है कि जानेवाली ? |