।। श्रीहरिः ।।

                 





आजकी शुभ तिथि–
  भाद्रपद कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७८, शनिवार 
 मनुष्य-जन्म ही अन्तिम जन्म है


शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार करता रहे तो स्वतः स्वाभाविक ही मुक्ति है और संसारका नहींपना दीखता है । तात्पर्य, है तो एक परमात्मा ही; दूजा हैं कहाँ ? ये सब तो नहींमें बदल रहे हैं, प्रत्यक्ष बात है‒‘अदर्शनादापतिता पुनश्चादर्शनं गता ।’ अदर्शनसे पैदा हुआ हुआ और फिर अदर्शनमें लीन हो रहा है । यह जितने शरीर हैं, सौ वर्ष पहले नहीं थे और सौ वर्ष बाद नहीं रहेंगे । जितनी यह सृष्टि है, सर्गसे पहले नहीं थी, प्रलयके बाद नहीं रहेगी । पहले नहीं थी और पीछे नहीं रहती, बीचमें नहीं होती हुई भी दीखती है; क्योंकि नहींसे पैदा होकर ‘नहीं’ में लीन हो गयी तो इसमें ‘नहीं’ पना सत्य रहा । इसका ‘है’ पना सत्य कैसे रहा ? परमात्मा पहले थे और अन्तमें परमात्मा रहेंगे, बीचमें परमात्मा कहाँ चले गये ? सत्य तत्त्व सम्पूर्ण अवस्थाओंमें ‘है’ ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है । इसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता । सृष्टि किंचिन्मात्र भी पैदा नहीं हुई थी, तब वह परमात्मा थे और सम्पूर्ण सृष्टिका अत्यन्त अभाव हो जाय तो भी परमात्मा रहेंगे । सृष्टिके रहते हुए भी परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं ।

केवल उत्पत्ति-विनाशकी तरफ दृष्टि रहनेसे परमात्माकी तरफ दृष्टि जाती नहीं । उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंमें ही उलझ जाते हैं । उत्पत्ति-विनाशका जो आधार है, इनका जो आश्रय है, इनका जो प्रकाशक है, जो उत्पत्ति और विनाशरहित है, उधर दृष्टि जाती नहीं‒यह बात सच्ची है । इसमें भी एक मार्मिक बात है कि दृष्टि उधर जाती तो है, पर हम उसको आदरकी दृष्टिसे नहीं देखते । साधारण-से-साधारण, ग्रामीण-से-ग्रामीण, अपढ़-से-अपढ़ आदमीके भी ऐसा होता है कि भाई, ये सदा रहनेवाला नहीं है, पैदा हुआ है तो नष्ट हो जायगा । यह ज्ञान उसको भी है, पर उस ज्ञानको महत्त्व नहीं देता है । उसका आदर नहीं करता है । इसीसे यह दुर्दशा हो रही है । केवल उसका आदर करें तो दूजी पढ़ाईकी जरूरत ही नहीं है । ग्रन्थोंकी जरूरत ही नहीं है । गुरुकी जरूरत ही नहीं है । शिक्षाकी जरूरत ही नहीं है ।

ठीक तरहसे विचार करें कि ये तो विनाशी है भाई । हम इसमें कैसे उलझे हैं ! थोड़ा-सा विचार करें तो साफ दीखता है । आप कहते भी हो कि रुपया क्या है ! रुपयो तो हाथरो मैल है । मानो रुपयोंको आप पैदा करते हो, आपको रुपया पैदा नहीं करते । आपके सामने वस्तुएँ आती हैं और जाती हैं । वस्तुओंके सामने आप नहीं आते-जाते हो । आप तो रहते हो । शरीरोंके भी आने-जानेसे आप आते-जाते नहीं हो, आप रहते हो । शरीरको कपड़ेका दृष्टान्त देकर बताया कि जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर मनुष्य नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही पुराने शरीरोंको छोड़कर यह जीव नये शरीर धारण कर लेता है । शरीरोंका आना-जाना है और आपका सदा रहना है, यह ज्ञान है । यह ज्ञान सबको है । अब इस ज्ञानको आदर नहीं देते, आदरकी दृष्टिसे नहीं देखते । आप बताओ, सच्ची बात रहनेवाली है कि जानेवाली ?