श्रीमद्भगवद्गीतामें आया है‒
बहूनां जन्मनामन्ते
ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ (७/१९) इसका तात्पर्य है कि मनुष्य-जन्म अन्तिम जन्म है
। यह खुद अगाड़ी जन्मको निमन्त्रण देगा तो जन्म होगा, नहीं तो भगवान्की तरफसे यह
अन्तिम जन्म है । अगर यह अगाड़ी
जन्मको निमन्त्रण नहीं देगा तो इसका जन्म नहीं होगा; क्योंकि यह जन्म परमात्माकी
प्राप्तिके लिये मिला है । भगवान् कृपा करके मानव-शरीर देते हैं‒इसका तात्पर्य
क्या है ? कि भाई, तुम अपना कल्याण कर लो । सदाके लिये मुक्त हो जाओ । भगवान्की कृपा कोई
मामूली नहीं होती, यह सर्वोपरि है । इस प्राणीके लिये मुक्तिका अवसर दे
दिया । अगर यह इस अन्तिम जन्ममें मुक्ति कर ले तो भगवान् इसको अगाड़ी जन्म नहीं
देंगे । अब जन्म होता है तो केवल इसके खुदके स्वीकार
करनेसे होता है । कारणं गुणसङ्गोऽस्यसदसद्योनिजन्मसु । (गीता १३/२१) ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेका कारण गुणोंका संग है । इस
मनुष्य-जन्ममें भगवान्ने एक बहुत विलक्षण शक्ति दी है, उसका नाम है—विवेक । विवेकका मतलब इसके
सामने उत्पन्न और नष्ट होनेवाली सृष्टि रखी । यह इस बदलनेवाली सृष्टिको प्रत्यक्ष
देखता है । सब प्राणी उत्पन्न होते हैं और मरते हैं, आते हैं और जाते हैं । दिन
होता है और रात होती है, जाग्रत् होता है और स्वप्न होता है और सुषुप्ति होती है
। इससे संसारकी अनित्यता साफ दीखती है । आप इतने बैठे हो, विचार करके देखो ! इस
संसारकी अनित्यता दीखती है कि नहीं ! एकरूपसे नित्य रहता ही नहीं । न दिन रहता है,
न रात रहती है । न शीतकाल रहता है, न ग्रीष्मकाल रहता है, न वर्षाकाल रहता है । न
जाग्रत् रहता है, न स्वप्न रहता है और न सुषुप्ति रहती है । न भूतकाल रहता है, न
वर्तमान रहता है और न भविष्य रहता है । मात्र सृष्टि बदल रही है । जो बदल रही है,
वह नहीं है; किन्तु जिनके प्रकाशसे यह बदलना दीखता है, जिसके आश्रित, अधीन यह
बदलना होता है, वह परमात्मा है । उसका होनापन है । इस
सृष्टिका होनापन नहीं है । यह तो केवल परिवर्तनशील है । जैसे, इस शरीरके बदलनेपर, अवस्थाओंके बदलनेपर ‘मैं’ रहता
हूँ‒यह अनुभव है । इसी तरहसे सम्पूर्ण संसारके बदलते रहनेपर परमात्मा रहते हैं‒यह
अनुभव है । ‘रहनेवाले’ परमात्मा और स्वयं हुए ।
‘बदलनेवाला’ संसार और शरीर हुआ । इस अनुभवके लिये नया ज्ञान सम्पादन करनेकी कोई
आवश्यकता नहीं है । चाहे जितना दूसरा
ज्ञान कर लो, परन्तु यह बात प्रत्यक्ष है । भगवान्ने जीवमात्रको विवेक
दिया है, पर मनुष्यको विशेषतासे दिया है । मात्र जीवको खाने-पीने आदिका ही विवेक है, पर इस मनुष्यको उत्पत्ति-विनाशशीलका ज्ञान
है । स्वयं अलग रहता हुआ इस उत्पत्ति-विनाशशीलमें
फँस जाता है । यह इसको बड़ी भारी भूल है । इसीसे जन्म-मरण होता है, नहीं तो
यह अन्तिम जन्म है, अब अगाड़ी जन्म नहीं है । यह स्वयं ही अपना जन्म पैदा करता है, अगर यह भगवदाज्ञाके विरुद्ध न चले और ठीक मर्यादासे चले तो फिर
जन्म नहीं होगा । इसमें यह मनुष्य समर्थ है, इसमें यह स्वतन्त्र है, इसमें
यह बलवान् है, इसमें यह निर्बल नहीं है, अयोग्य नहीं है । ऐसे ही ठीक चले तो
मुक्ति स्वतःसिद्ध है, क्योंकि अनेक जन्मोंसे जो बना हुआ प्रारब्ध है, उसका फल तो
स्वतः आकर मिलेगा और वह प्रारब्ध नष्ट हो जायगा । फल भोगमें आया और नष्ट हुआ ।
संचित बेचारे कुछ काम नहीं करते, वे चुपचाप हैं । फुरणाएँ आती हैं तो उनके वशमें न
रहे । तयोर्न वशमागच्छेत् तौ हृस्य परिपन्थिनौ ॥ (गीता ३/३४) |