।। श्रीहरिः ।।

                





आजकी शुभ तिथि–
  भाद्रपद कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७८, शुक्रवार 
 मनुष्य-जन्म ही अन्तिम जन्म है


श्रीमद्भगवद्गीतामें आया है‒

बहूनां जन्मनामन्ते  ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

(७/१९)

इसका तात्पर्य है कि मनुष्य-जन्म अन्तिम जन्म है । यह खुद अगाड़ी जन्मको निमन्त्रण देगा तो जन्म होगा, नहीं तो भगवान्‌की तरफसे यह अन्तिम जन्म है । अगर यह अगाड़ी जन्मको निमन्त्रण नहीं देगा तो इसका जन्म नहीं होगा; क्योंकि यह जन्म परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है । भगवान्‌ कृपा करके मानव-शरीर देते हैं‒इसका तात्पर्य क्या है ? कि भाई, तुम अपना कल्याण कर लो । सदाके लिये मुक्त हो जाओ ।  भगवान्‌की कृपा कोई मामूली नहीं होती, यह सर्वोपरि है । इस प्राणीके लिये मुक्तिका अवसर दे दिया । अगर यह इस अन्तिम जन्ममें मुक्ति कर ले तो भगवान्‌ इसको अगाड़ी जन्म नहीं देंगे । अब जन्म होता है तो केवल इसके खुदके स्वीकार करनेसे होता है ।

कारणं गुणसङ्गोऽस्यसदसद्योनिजन्मसु ।

(गीता १३/२१)

ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेका कारण गुणोंका संग है । इस मनुष्य-जन्ममें भगवान्‌ने एक बहुत विलक्षण शक्ति दी है, उसका नाम हैविवेक । विवेकका मतलब इसके सामने उत्पन्न और नष्ट होनेवाली सृष्टि रखी । यह इस बदलनेवाली सृष्टिको प्रत्यक्ष देखता है । सब प्राणी उत्पन्न होते हैं और मरते हैं, आते हैं और जाते हैं । दिन होता है और रात होती है, जाग्रत्‌ होता है और स्वप्‍न होता है और सुषुप्ति होती है । इससे संसारकी अनित्यता साफ दीखती है । आप इतने बैठे हो, विचार करके देखो ! इस संसारकी अनित्यता दीखती है कि नहीं ! एकरूपसे नित्य रहता ही नहीं । न दिन रहता है, न रात रहती है । न शीतकाल रहता है, न ग्रीष्मकाल रहता है, न वर्षाकाल रहता है । न जाग्रत्‌ रहता है, न स्वप्‍न रहता है और न सुषुप्ति रहती है । न भूतकाल रहता है, न वर्तमान रहता है और न भविष्य रहता है । मात्र सृष्टि बदल रही है । जो बदल रही है, वह नहीं है; किन्तु जिनके प्रकाशसे यह बदलना दीखता है, जिसके आश्रित, अधीन यह बदलना होता है, वह परमात्मा है । उसका होनापन है । इस सृष्टिका होनापन नहीं है । यह तो केवल परिवर्तनशील है ।

जैसे, इस शरीरके बदलनेपर, अवस्थाओंके बदलनेपर ‘मैं’ रहता हूँ‒यह अनुभव है । इसी तरहसे सम्पूर्ण संसारके बदलते रहनेपर परमात्मा रहते हैं‒यह अनुभव है । ‘रहनेवाले’ परमात्मा और स्वयं हुए । ‘बदलनेवाला’ संसार और शरीर हुआ । इस अनुभवके लिये नया ज्ञान सम्पादन करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । चाहे जितना दूसरा ज्ञान कर लो, परन्तु यह बात प्रत्यक्ष है । भगवान्‌ने जीवमात्रको विवेक दिया है, पर मनुष्यको विशेषतासे दिया है । मात्र जीवको खाने-पीने आदिका ही विवेक है, पर इस मनुष्यको उत्पत्ति-विनाशशीलका ज्ञान है । स्वयं अलग रहता हुआ इस उत्पत्ति-विनाशशीलमें फँस जाता है । यह इसको बड़ी भारी भूल है । इसीसे जन्म-मरण होता है, नहीं तो यह अन्तिम जन्म है, अब अगाड़ी जन्म नहीं है । यह स्वयं ही अपना जन्म पैदा करता है, अगर यह भगवदाज्ञाके विरुद्ध न चले और ठीक मर्यादासे चले तो फिर जन्म नहीं होगा । इसमें यह मनुष्य समर्थ है, इसमें यह स्वतन्त्र है, इसमें यह बलवान्‌ है, इसमें यह निर्बल नहीं है, अयोग्य नहीं है । ऐसे ही ठीक चले तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है, क्योंकि अनेक जन्मोंसे जो बना हुआ प्रारब्ध है, उसका फल तो स्वतः आकर मिलेगा और वह प्रारब्ध नष्ट हो जायगा । फल भोगमें आया और नष्ट हुआ । संचित बेचारे कुछ काम नहीं करते, वे चुपचाप हैं । फुरणाएँ आती हैं तो उनके वशमें न रहे ।

तयोर्न वशमागच्छेत् तौ हृस्य परिपन्थिनौ ॥

(गीता ३/३४)