।। श्रीहरिः ।।

               





आजकी शुभ तिथि–
  भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७८, गुरुवार              
          प्रेमकी जागृतिमें ही

मानव-जीवनकी पूर्णता



परमात्माका स्वरूप सत्‌-चित्-आनन्दमय है । ‘सत्‌’ में असीम, अनन्त, अपार सौन्दर्य है, ‘चित्’ में असीम, अनन्त, अपार ऐश्वर्य है और ‘आनन्द’ में असीम, अनन्त, अपार माधुर्य है । सत्‌में सौन्दर्य इसलिये हैं कि अपनी सत्ताकी तरफ सबका आकर्षण होता है कि मैं सदा बना रहूँ । अपनी सत्तामें कभी अरुचि नहीं होती । चित्‌में ऐश्वर्य इसलिये होता है कि मैं इतनी बातोंका जानकार हूँ‒इस तरह अपनेमें विशेष जानकारी (विद्वता)-का, एक संग्रहका, एक प्रभावका अनुभव होता है[*] । आनन्दमें माधुर्य इसलिये होता है कि आनन्द सबको मधुर, मीठा लगता है । सत्‌, चित् और आनन्द तीनों एक होते हुए भी केवल दृष्टिभेदसे अलग-अलग प्रतीत होते हैं । वास्तवमें जहाँ सत्‌ है, वहाँ चित् और आनन्द भी हैं । जहाँ चित् है, वहाँ सत्‌ और आनन्द भी हैं । जहाँ आनन्द है, वहाँ सत्‌ और चित् भी हैं । परमात्मतत्त्व (अंशी)-में तो सत्‌-चित्-आनन्द पूर्णरूपसे विद्यमान हैं, पर उनके अंश जीवमें ये आंशिक रूपसे विद्यमान हैं ।

संसारमें जो सौन्दर्य, ऐश्वर्य और माधुर्य दीखता है, वह प्रतिक्षण मिटनेवाला है । परन्तु संसारके साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण मनुष्यकी दृष्टि संसारमें ही अटक जाती है, उससे आगे परमात्मतत्त्वकी तरफ जाती ही नहीं । रागके कारण वह संसारके क्षणिक सौन्दर्य, ऐश्वर्य और माधुर्यको ही स्थायी तथा सत्य मान बैठता है । यद्यपि संसारमें दीखनेवाला सौन्दर्य-ऐश्वर्य-माधुर्य भी उस परमात्माके ही सौन्दर्य-ऐश्वर्य-माधुर्यकी एक आभा, झलक है[†], तथापि मनुष्य उसको परमात्माका न मानकर उसकी स्वतन्त्र सत्ता मान लेता है और उसको ही महत्ता दे देता है । सांसारिक सौन्दर्यको महत्ता देनेसे आसक्ति पैदा हो जाती है । परिणामस्वरूप उसका जीवन विकारी, अशान्त और परतन्त्र हो जाता है । परन्तु जब संसारसे माना हुआ सम्बन्ध नहीं रहता, तब ममता, कामना और आसक्तिका नाश हो जाता है और मनुष्य निर्विकार, शान्त और स्वतन्त्र हो जाता है  अर्थात्‌ संसार-बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जाता है । जब भगवान्‌की अहैतुकी कृपा उस मुक्तिको भी फीका कर देती है, तब प्रेमकी जागृति होती है । जैसे सूर्यका उदय होनेपर हजार वाटके लट्टूका प्रकाश मिट तो नहीं जाता, पर सूर्यके सामने उस प्रकाशका उतना महत्त्व नहीं रहता, ऐसे ही प्रेमका उदय होनेपर निर्विकारता, शान्ति और स्वतन्त्रता मिट तो नहीं जाती, पर उनका उतना महत्त्व नहीं रहता । महत्त्व न रहनेसे ‘मैं निर्विकार हूँ; मैं शान्त हूँ; मैं स्वतन्त्र हूँ’‒यह सूक्ष्म अहंभाव तथा इससे पैदा होनेवाला सभी दार्शनिक मतभेद सर्वथा मिट जाते हैं अर्थात्‌ अद्वैत, विशिष्ठाद्वैत्त, द्वैत, द्वैताद्वैत आदि जितने भी मतभेद हैं, सब वासुदेवरूप हो जाते हैं, जो कि वास्तवमें हैं । इसलिये ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करनेवाले प्रेमी भक्तके हृदयमें किसी एक मतका आग्रह नहीं रहता, प्रत्युत सबका समान आदर रहता है । किसी एक मतका आग्रह न होनेसे उसके द्वारा किसीका भी कभी अनादर नहीं होता ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे


[*] राजा जनकजी कहते हैं‒

धरम   राजनय   ब्रह्मबिचारू  ।  इहाँ   जथामति  मोर   प्रचारू ॥

सो मति मोरि भरत महिमाही । कहै काह छलि छुअति न छाँही ॥

(मानस, अयोध्या २८८/२-३)

[†] जासु सत्यता तें जड़ माया । भास सत्य इव मोह सहाया ॥

(मानस, बाल ११७/४)